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रह रह के होती जाती है दुनिया तमाम शुद / निर्मल 'नदीम'

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रह रह के होती जाती है दुनिया तमाम शुद,
होता नहीं पर इश्क़ का किस्सा तमाम शुद।

प्यासे तो अपने होंट भिगोकर चले गए,
लेकिन हवस से कब हुआ दरिया तमाम शुद।

बिखरा के मोती इश्क़ के हर नक़्श ए पा के साथ,
उसने किया है दश्त ए तमन्ना तमाम शुद।

गिरता है एक पर्दा अंधेरे का ज़ीस्त पर,
होता है रोज़ एक तमाशा तमाम शुद।

कुछ भी नहीं बचेगा जहां में सिवा ए इश्क़,
मजनूं तमाम हो गया लैला तमाम शुद।

गुंचो की मौज उसके तबस्सुम पे है अयां,
कर देगी मेरी आंखों का सहरा तमाम शुद।

आंखों में ले के फिरती है नाज़ ओ अदा के रंग,
लहरा के खींच लूं तो हो सहबा तमाम शुद।

इक ज़ख़्म जिसमें तीर भी पाया गया न जज़्ब,
उस पर हुआ है इल्म ए मसीहा तमाम शुद।

डूबेंगे एक क़ुलज़ुम ए खूं ही में हम सभी,
होगी हरेक हस्ती ए अशिया तमाम शुद।

कहकर गया ये आशिक़ ए बेदार अर्श से,
हम जा रहे हैं तुम करो चर्चा तमाम शुद।

उट्ठेगी जब भी मौज क़यामत की तब नदीम,
काबा तमाम होगा कलीसा तमाम शुद।