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राख़ / महेश वर्मा

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ढेर सारा कुछ भी तो नहीं जला है इन दिनों
न देह, न जंगल, फिर कैसी यह राख़ हर ओर ?

जागते में भर जाती बोलने के शब्दों में,
क़िताब खोलो तो भीतर पन्ने नहीं राख़ !

एक फुसफुसाहट में गर्क हो जाता चुंबन

राख़ के पर्दे,
राख़ का बिस्तर,

हाथ मिलाने से डर लगता
दोस्त थमा न दे थोड़ी सी राख़ ।

बहुत पुरानी घटना हो गई कुएँ तालाब का पानी देखना,
अब तो उसको ढके हुए हैं राख़ ।

राख़ की चादर ओढ़कर, घुटने मोड़े
मैं सो जाता हूँ घर लौटकर
सपनों पर नि:शब्द गिरती रहती है- राख़ ।