राख और आग / भारतरत्न भार्गव
बिसरी - बिखरी पगडण्डियों को
सँवारने - बुहारने वाले
लहुलुहान ज़िद्दी हाथों को पढ़कर
कोई भी समझ सकता था
कँटीली झाड़ियों और पथरीली ज़मीन की वह दुनिया
ओझल क्यों रही राख की चादर में लिपटी।
यहीं से उड़ान भरते हैं वे दृष्टिकल्प
जिनकी सुकुमार आँखों के लिए
तितलियों के पंखों से निर्मित है रंगपरी
दृष्ट हैं निर्जन बस्तियाँ
अलंकृत हतोपलब्धियाँ।
आँखों के अन्दर की आँखों से
फूटते उजाले ने परोस दिया
अर्थ गर्भित शून्य।
यहीं कहीं, हाँ यहीं कहीं होगा
पूर्वजों के नामालूम ख़जाने का
अघोषित रहस्य
पुराणों और इतिहास के ताबूतों से
फूटती चिंगारियाँ रात के अन्धेरे में।
सिरे खो गए हैं और गाँठे अबूझ
फिर से शुरू करनी होगी
राख और आग की परिक्रमा
परिभाषित करना नए सिरे से आग को।
कहाँ है वह ओझा
जो राख को
आग बनाने का मन्त्र जानता है !