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राख राख / रामकृपाल गुप्ता

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पी के तमाम हो गई बोतल शराब की,
अब याद-ए जुनूं–साथ लिये जी रहा हूँ मैं।
ऐसे भी दौर थे कि पी के होश खो दिये,
खाली है ज़ाम देख रहा, जी रहा हूँ मैं।
गिनती की साँस लेके ही आया है हर बशर,
फूँकी थी ख़ूब, फूँक–फूँक जी रहा हूँ मैं।
गिरके हज़ार बार उठा, फिर सँभल गया,
अब के गिरा तो होश फना, जी रहा हूँ मैं।
तौबा ये ज़िन्दगी, अब इसे और क्या कहिये,
मल-मल के हाथ, राख–राख जी रहा हूँ मैं।