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राख से जन्म / विमल कुमार
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मैं अपनी राख में से
फिर से जन्म ले रहा हूँ
एक सपना लिए
एक उम्मीद लिए
शायद इस बार मैं
कुछ ऐसी रेखाएँ खींच सकूँ
नदी की सतह पर
तुम ज़िन्दगी भर याद करोगी
कि कितनी चमक है इन रेखाओं में
मैं जन्म ले रहा हूँ
अपनी आँखें खोल रहा हूँ
पंख फड़फड़ा रहा हूँ
खोल रहा हूँ मुँह
फैला रहा हूँ अपनी भुजाएँ
आसमान में चारों तरफ़
डगमग कर रहे हैं मेरे पाँव
मैं आ रहा हूँ फिर से तुम्हारे पास
पर घबराओ नहीं
अब मैं काफ़ी बदल गया हूँ
राखपुत्र जो हूँ
तुम मिलोगी तो
नहीं पहचान पाओगी
यह वही शख़्स है
जो कुछ दिन पहले ही
एक मुट्ठी राख में तब्दील हो गया है