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राग गौड़ी / पृष्ठ - १ / पद / कबीर

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दुलहनी गावहु मंगलचार,
हम घरि आए हो राजा राम भरतार॥टेक॥
तन रत करि मैं मन रत करिहूँ, पंचतत्त बराती।
राम देव मोरैं पाँहुनैं आये मैं जोबन मैं माती॥
सरीर सरोवर बेदी करिहूँ, ब्रह्मा वेद उचार।
रामदेव सँगि भाँवरी लैहूँ, धनि धनि भाग हमार॥
सुर तेतीसूँ कौतिग आये, मुनिवर सहस अठ्यासी।
कहै कबीर हँम ब्याहि चले हैं, पुरिष एक अबिनासी॥1॥

बहुत दिनन थैं मैं प्रीतम पाये, भाग बड़े घरि बैठे आये॥टेक॥
मंगलाचार माँहि मन राखौं, राम रसाँइण रमना चाषौं।
मंदिर माँहि भयो उजियारा, ले सुतो अपना पीव पियारा॥
मैं रनि राती जे निधि पाई, हमहिं कहाँ यह तुमहि बड़ाइ।
कहै कबीर मैं कछु न कीन्हा सखी सुहाग मोहि दीन्हा॥2॥

अब तोहि जान न देहुँ राम पियारे, ज्यूँ भावै त्यूँ होहु हमारे॥टेक॥
बहुत दिनन के बिछुरे हरि पाये, भाग बड़े घरि बैठे आये॥
चरननि लागि करौं बरियायी, प्रेम प्रीति राखौं उरझाई।
इत मन मंदिर रहौ नित चोषै, कहै कबीर करहु मति घोषैं॥3॥

मन के मोहन बिठुला, यह मन लागौ तोहि रे।
चरन कँवल मन मानियाँ, और न भावै मोहि रे॥टेक॥
षट दल कँवल निवासिया, चहु कौं फेरि मिलाइ रे।
दहुँ के बीचि समाधियाँ, तहाँ काल न पासैं आइ रे॥
अष्ट कँवल दल भीतरा, तहाँ श्रीरंग केलि कराइ रे।
सतगुर मिलै तौ पाइए, नहिं तौ जन्म अक्यारथ जाइ रे॥
कदली कुसुम दल भीतराँ, तहाँ दस आँगुल का बीच रे।
तहाँ दुवारस खोजि ले जनम होत नहीं मीच रे॥
बंक नालि के अंतरै, पछिम दिसाँ की बाट रे।
नीझर झरै रस पीजिये, तहाँ भँवर गुफा के घाट रे॥
त्रिवेणी मनाइ न्हवाइए सुरति मिलै जो हाथि रे।
तहाँ न फिरि मघ जोइए सनकादिक मिलिहै साथि रे॥
गगन गरिज मघ जोइये, तहाँ दीसै तार अनंत रे।
बिजुरी चमकि घन बरषिहै, तहाँ भीजत हैं सब संत रे॥
षोडस कँवल जब चेतिया, तब मिलि गये श्री बनवारि रे।
जुरामरण भ्रम भाजिया, पुनरपि जनम निवारि रे॥
गुर गमि तैं पाइए झषि सरे जिनि कोइ रे।
तहीं कबीरा रमि रह्या सहज समाधी सोइ रे॥4॥
टिप्पणी: ख-जन्म अमोलिक।

गोकल नाइक बीठुला, मेरौ मन लागै तोहि रे।
बहुतक दिन बिछुरै भये, तेरी औसेरि आवै मोहि रे॥टेक॥
करम कोटि कौ ग्रेह रच्यो रे, नेह कये की आस रे।
आपहिं आप बँधाइया, द्वै लोचन मरहिं पियास रे॥
आपा पर संमि चीन्हिये, दीसैं सरब सँमान।
इहि पद नरहरि भेटिये, तूँ छाड़ि कपट अभिमान रे॥
नाँ कलहूँ चलि जाइये नाँ सिर लीजै भार।
रसनाँ रसहिं बिचारिये, सारँग श्रीरँग धार रे॥
साधै सिधि ऐसी पाइये, किंवा होइ महोइ।
जे दिठ ग्यान न ऊपजै, तौ आहुटि रहै जिनि कोइ रे॥
एक जुगति एकै मिलैं किंबा जोग कि भोग।
इन दून्यूँ फल पाइये, राम नाँम सिधि जोग रे॥
प्रेम भगति ऐसी कीजिये, मुखि अमृत अरिषै चंद रे।
आपही आप बिचारिये, तब कंता होइ अनंद रे॥
तुम्ह जिनि जानौं गीत है, यहू निज ब्रह्म विचार।
केवल कहि समझाइया, आतम साधन सार रे।
चरन कँवल चित लाइये, राम नाम गुन गाइ॥
कहै कबीर मंसा नहीं, भगति मुकति गति पाइ रे॥5॥
टिप्पणी: ख-प्रति में इसके आगे यह पद है-

अब मैं राम सकल सिधि पाई, आन कहूँ तौ राम दुहाई॥टेक॥
इहि विधि बसि सबै रस दीठा, राम नाम सा और न मीठा।
और रस ह्नै कफगाता, हरिरस अधिक अधिक सुखराता॥
दूजा बणज नहीं कछु वाषर, राम नाम दोऊ तत आषर।
कहै कबीर हरिस भोगी, ताकौं मिल्या निरंजन जोगी॥6॥


अब मैं पाइबो रे पाइबो ब्रह्म गियान,
सहज समाधें सुख में रहिबो, कोटि कलप विश्राम॥टेक॥
गुर कृपाल कृपा जब कीन्हौं, हिरदै कँवल बिगासा।
भाग भ्रम दसौं दिस सुझ्या, परम जोति प्रकासा॥
मृतक उठ्या धनक कर लीयै, काल अहेड़ी भाषा।
उदय सूर निस किया पयाँनाँ, सोवत थैं जब जागा॥
अविगत अकल अनुपम देख्या, कहताँ कह्या न जाई।
सैन करै मन हो मर रहसैं, गूँगैं जाँनि मिठाई॥
पहुप बिनाँ एक तरवर फलिया, बिन कर तूर बजाया।
नारी बिना नीर घट भरिया, सहज रूप सौ पाया॥
देखत काँच भया तन कंचन, बिना बानी मन माँनाँ।
उड़îा बिहंगम खोज न पाया, ज्यूँ जल जलहिं समाँनाँ॥
पूज्या देव बहुरि नहीं पूजौं, न्हाये उदिक न नाउँ।
आपे मैं तब आया निरष्या, अपन पै आपा सूझ्या।
आपै कहत सुनत पुनि अपनाँ, अपन पै आपा बूझ्या॥
अपनै परचै लागी तारी, अपन पै आप समाँनाँ।
कहै कबीर जे आप बिचारै, मिटि गया आवन जाँना॥6॥

नरहरि सहजै ही जिनि जाना।
गत फल फूल तत तर पलव, अंकूर बीज नसाँनाँ॥टेक॥
प्रकट प्रकास ग्यान गुरगमि थैं, ब्रह्म अगनि प्रजारी।
ससि हरि सूर दूर दूरंतर, लागी जोग जुग तारी॥
उलटे पवन चक्र षट बेधा, मेर डंड सरपूरा।
गगन गरजि मन सुंनि समाना, बाजे अनहद तूरा॥
सुमति सरीर कबीर बिचारी, त्रिकुटी संगम स्वामी।
पद आनंद काल थैं छूटै, सुख मैं सुरति समाँनी॥7॥

मन रे मन ही उलटि समाँना।
गुर प्रसादि अकलि भई तोकौं नहीं तर था बेगाँना॥टेक॥
नेड़ै थे दूरि दूर थैं नियरा, जिनि जैसा करि जाना।
औ लौ ठीका चढ्या बलीडै, जिनि पीया तिनि माना॥
उलटे पवन चक्र षट बेधा, सुन सुरति लै लागि।
अमर न मरै मरै नहीं जीवै, ताहि खोजि बैरागी॥
अनभै कथा कवन सी कहिये, है कोई चतुर बिबेकी।
कहै कबीर गुर दिया पलीता, सौ झल बिरलै देखी॥8॥

इति तत राम जपहु रे प्राँनी, बुझौ अकथ कहाँणी।
हीर का भाव होइ जा ऊपरि जाग्रत रैनि बिहानी॥टेक॥
डाँइन डारै, सुनहाँ डोरै स्पंध रहै बन घेरै।
पंच कुटुंब मिलि झुझन लागे, बाजत सबद सँघेरै॥
रोहै मृग ससा बन घेरे, पारथी बाँण न मेलै।
सायर जलै सकल बन दाझँ, मंछ अहेरा खेलै॥
सोई पंडित सो तत ज्ञाता, जो इहि पदहि बिचारै।
कहै कबीर सोइ गुर मेरा, आप तीरै मोहि तारै॥9॥

अवधू ग्यान लहरि धुनि मीडि रे।
सबद अतीत अनाहद राता, इहि विधि त्रिष्णाँ षाँड़ी॥टेक॥
बन कै संसै समंद पर कीया मंछा बसै पहाड़ी।
सुई पीवै ब्राँह्मण मतवाला, फल लागा बिन बाड़ी॥
षाड बुणैं कोली मैं बैठी, मैं खूँटा मैं गाढ़ी।
ताँणे वाणे पड़ी अनँवासी, सूत कहै बुणि गाढ़॥
कहै कबीर सुनहु रे संतौ, अगम ग्यान पद माँही।
गुरु प्रसाद सुई कै नांकै, हस्ती आवै जाँही॥10॥