राग गौड़ी / पृष्ठ - ६ / पद / कबीर
लोका जानि न भूलौ भाई।
खालिक खलक खलक मैं खालिक, सब घट रहौ समाई ॥टेक॥
अला एकै नूर उपनाया, ताकी कैसी निंदा।
ता नूर थै सब जग कीया, कौन भला कौन मंदा ॥
ता अला की गति नहीं जाँनी गुरि गुड़ दीया मीठा ॥
कहै कबीर मैं पूरा पाया, सब घटि साहिब दीठा ॥51॥
राँम मोहि तारि कहाँ लै जैहो।
सो बैकुंठ कहौ धूँ कैसा, करि पसाव मोहि दैहो ॥टेक॥
जे मेरे जीव दोइ जाँनत हौ, तौ मोहि मुकति बताओ।
एकमेक रमि रह्मा सबनि मैं, तो काहे भरमावै॥
तारण तिरण जबै लग कहिये, तब लग तत न जाँनाँ।
एक राँम देख्या सबहिन मैं कहै कबीर मन माँनाँ ॥52॥
सोहं हंसा एक समान, काया के गुँण आँनही आन ॥टेक॥
माटी एक सकल संसार, बहुबिधि भाँडे घड़ै कुँभारा।
पंच बरन दस दुहिये गाइ, एक दूध देखौ पतिआइ।
कहै कबीर संसा करि दूरि त्रिभवननाथ रह्या भरपूर ॥53॥
प्यारे राँम मनहीं मनाँ।
कासूँ कहूँ कहन कौं नाहीं, दूसरा और जनाँ॥टेक॥
ज्यूँ दरपन प्रतिब्यंब देखिये आप दवासूँ सोई।
संसौ मिट्यौ एक कौ एकै, महा प्रलै जब होई॥
जौ रिझाऊँ तौ महा कठिन है, बिन रिझायैं थैं सब खोटी।
कहै कबीर तरक दोइ साधै, ताकी मति है मोटी॥54॥
हँम तौ एक एक करि जाँनाँ।
दोइ कहै तिनही कौं दोजग, जिन नाँहिन पहिचाँनाँ॥टेक॥
एकै पवन एक ही पानी, एक जोति संसारा।
एक ही खाक घड़े सब भाँडे, एक ही सिरजनहारा॥
जैसै बाढ़ी काष्ट ही काटै, अगिनि न काटै कोई॥
सब घटि अंतरि तूँहीं व्यापक, धरै सरूपै सोई॥
माया मोहे अर्थ देखि करि, काहै कूँ गरबाँनाँ॥
निरभै भया कछू नाहिं ब्यापै, कहै कबीर दिवाँनाँ॥55॥
अरे भाई दोइ कहा सो मोहि बतायौ, बिचिही भरम का भेद लगावौ॥टेक॥
जोनि उपाइ रची द्वै धरनीं दीन एक बीच भई करनी।
राँम रहीम जपत सुधि गई, उनि माला उनि तसबी लई॥
कहै कबीर चेतहु रे भौंदू, बोलनहारा तुरक न हिंदू॥56॥
ऐसा भेद बिगूचन भारी। बेद कतेब दीन अरु दुनियाँ, कौन पुरिषु कौननारी॥टेक॥
एक बूंद एकै मल मूतर, एक चाँम एक चाँम एक गूदा।
एक जोति थैं सब उतपनाँ, कौन बाँम्हन कौन सूदा॥
माटी का प्यंड सहजि उतपनाँ, नाद रु ब्यंद समाँनाँ।
बिनसि गयाँ थै का नाँव धरिहौ, पढ़ि गुनि हरि भ्रँन जाँना॥
रज गुन ब्रह्मा तम गुन संकर, सत गुन हरि है सोई।
कहै कबीर एक राँम जपहु रे, हिंदू तुरक न कोई॥57॥
हँमारे राँम रहीम करीमा केसो, अलाह राँम सति सोई।
बिसमिल मेटि बिसंभर एकै, और न दूजा कोई॥टेक॥
इनके काजी मूलाँ पीर पैकंबर, रोजा पछिम निवाजा।
इनकै पूरब दिसा देव दिज पूजा, ग्यारसि गंग दिवाजा॥
तुरक मसीति देहुरै हिंदू, दहूँठा राँम खुदाई।
जहाँ मसीति देहुरा नाहीं, तहाँ काकी ठकुराई॥
हिंदू तुरक दोऊ रह तूटी, फूटी अरु कनराई।
अरध उरथ दसहूँ दिस जित तित, पूरि रह्या राम राई॥
कहै कबीरा दास फकीरा, अपनी रहि चलि भाई॥
हिंदू तुरक का करता एकै ता गति लखी न जाई॥58॥
काजी कौन कतेब बषांनै।
पढ़त पढ़त केते दिन बीते, गति एकै नहीं जानैं॥टेक॥
सकति से नेह पकरि करि सुंनति, बहु नबदूँ रे भाई।
जौर षुदाई तुरक मोहिं करता, तौ आपै कटि किन जाई॥
हौं तौ तुरक किया करि सुंनति, औरति सौ का कहिये।
अरध सरीरी नारि न छूटै, आधा हिंदू रहिये॥
छाँड़ि कतेब राँम कहि काजी, खून करत हौ भारी।
पकरी टेक कबीर भगति की, काजी रहै झष मारी॥59॥
मुलाँ कहाँ पुकारै दूरि, राँम रहीम रह्या भरपूरि॥टेक॥
यहु तौ अलहु गूँगा नाँही, देखे खलक दुनी दिल माँही॥
हरि गुँन गाइ बंग मैं दीन्हाँ, काम क्रोध दोऊ बिसमल कीन्हाँ।
कहै कबीर यह मुलना झूठा, राम रहीम सबनि मैं दीठा॥60॥