राग नींद / संतोष कुमार चतुर्वेदी
देखा मैंने
जब भी देखा
अपने इस शहर को
दौड़ते-भागते-जागते देखा
दिन-रात चलती मशीनें-खटर-पटर
दिन-रात खटते मजदूर-थके-मांदे
दिन-रात की शोर से बहरी हो गयी सड़क
दिन-रात चारो तरफ बस
भागमभाग-दौड़धूप
कहीं पर नींद का नामो-निशान नहीं
कहीं पर नींद की परछाई नहीं
कहीं पर लोरी गाती कोई माँ नहीं
कहीं पर कोई सपना नहीं
उफ् कितना भयावह है यह सब कुछ
हैलोजन-नियॉन लैम्पों की रंगी हुई रोशनी में
गुम होती लोगों की रातें हैं यहाँ
गुम होती रातों में खोती हुई नींद है यहाँ
गुम होती नींद में खोते हुए सपने हैं यहाँ
और यह आकाश-तारों की लड़ियों से सजा हुआ
दुग्ध-धवल आकाशगंगा में तना हुआ
खोता जा रहा है समूचा
मानवी चकाचौंध के बाहुपाश में
नींद की वजह से कभी कुम्भकर्ण की उपाधि से नवाजा गया मैं
अब खुद को पाता हूँ जागता आकर्ण
जब कभी पलक झपकती है
गाने लगता है मोबाइल- ‘राग कर्कश' में,
जब कभी अलसाती हैं हमारी आखों
घर सन्नद्ध हो जाता है टी.वी. चैनल पर आने वाले
अपने प्रिय धारावाहिक को देखने के लिए
जब कभी आखों में झलकती है नींद की लालिमा
होने लगता है बेमतलब का हंगामा मेरे घर के सामने
और एक बार उचटी हुई नींद की लड़ी जोड़ने की
कोशिश में जब भी जुटता हूँ
रात बेतरह थक चुकी होती है
कि इसी समय
चौकाने वाली खबरों के साथ आ धमकता है अखबार
मित्रों-परिचितों-अपरिचितों की कॉलबेल बजने लगती है
सूरज आ जाता है अपने सात घोड़ों वाले रथ के साथ
बड़ी तेजी से-ठीक अपने समय पर
और मैं चल पड़ता हूँ
अपने काम पर-दौड़ते-भागते
अपने जगने के समय में कोई कटौती नहीं कर पाता
कविताई करने में भी नहीं करता समझौता
बाजार का अपना हिस्सा है हमारे जागृति-समय में
घर-बार, दोस्तों-मित्रों का अलग दावा है हमारे समय में
रोजी-रोजगार का कारोबारी समय तो तय ही है
कोई भी कटौती जब करनी होती है
कर लेता हूँ अपनी नींद वाले समय से
और अब हालत यह है कि
सब कुछ होते हुए मेरे पास नहीं है मुट्ठी भर नींद
वह लम्हा नहीं मिल पाता
जब ले सकूं सुकून भरी नींद
अपने सितार पर मैं 'राग नींद' बजाना चाहता हूँ।
लेकिन अजीब तरीके से बजने लगता है कभी- 'राग जागृति'
तो कभी बजने लगता है - 'राग भागमभाग'
तो कभी बजने लगता है - 'राग चिन्ता'
और इस तरह के कई और राग
जिनके नाम तक नहीं सुने संगीत के मशहूर उस्तादों ने भी
किस्सागो बताते हैं
'राग नींद' बजाने वाले बचे हैं कुछ लोग
अपनी फाकामस्ती के बावजूद
वे सड़क किनारे धूल वाले बिस्तर पर
आसन साध कर जुट जाते हैं रियाज में
गाने लगते हैं 'राग खर्राटा'
इस 'राग नींद' को साध लेते हैं रिक्शावाले सहज ही
अपने रिक्शे पर पड़े-पड़े-मुड़ी-गोड़ समेटे
या फिर उन मजूरों के आखों बजता दिख जायेगा 'राग नींद'
जो पसीने के अपने कवच-कुण्डल के साथ
दिख जाते हैं मेहनत के रंगमंच पर
'राग नींद' बजाते हुए पहुँच जाते हैं वे मजूर
'नींद-उत्सव' के राग में
सुधी स्रोता भी भांप नहीं पाते
सड़कों के डिवाइडरों, रेलवे प्लेटफार्मों
चौराहे के पार्कों और चबूतरों तक को
बदल डालते हैं वे मंच में
तेज रफ्तार वाहनों की कानफोड़ू आवाजें
महफिलों में छोड़े जाने वाले पटाखे
मौसम की उमस
या आस-पास भिनभिनाते-काटते माखी-मच्छर
नहीं तोड़ पाते उनका ध्यान
'नींद-उत्सव' को खास रंग देने में
जुटे हैं वे तल्लीनता से
वातानुकूलित कमरों
गद्देदार बिस्तरों
सुमधुर संगीत और
तरह-तरह की सुख-सुविधाओं के बीच भी
उचट जाती है नींद
बारम्बार
मैं नींद को धमकाता हूँ
नींद को खरीदना चाहता हूँ बाजार से
किसी भी कीमत वाले रिचार्ज कूपन का भुगतान कर
पाना चाहता हूँ 'स्लीपिंग वैल्यू'
हो सके तो किसी से उधार ही लेना चाहता हूँ नींद
लेकिन किसी भी जुगत से
नहीं मिल पा रही नींद
नींद की कई तरह की गोलियों
नींद के आजमाए हुए जोग
नींद के सिद्ध तन्त्र-मन्त्र
नींद की तमाम कसरतों-कवायदों के बावजूद
कहीं भी पता नहीं नींद का
नींद की अहेर में जुटा हुआ मैं
बार-बार क्यों रह जा रहा असफल
नहीं लांघ पा रहा नींद की देहरी
बचपन के गाँव में एक हकीमजी बताया करते थे
और आज का हमारा चिकित्साशास्त्र भी तसदीक करता है इस बात की
अच्छी सेहत के लिए जरूरी होती है पुरकश नींद
सफल होने के लिए जरूरी होते हैं सपने
लेकिन अब तो यहाँ न नींद है, न ही सपने
हमारे शहर को लग गयी है किसी की नजर
कोई वैद्य-हकीम आकर बचा ले हमारे शहर को
किसी भी कीमत के एवज में
नींद से आदमी के पुरातन रिश्ते में
किस वजह से पड़ती जा रही है दरार
आदमी-आदमी के बीच
अब क्यों नहीं रहा वह ऐतबार
जब कोई सफर करते हम
बगलगीर से बेतक्कलुफी से बता कर
आराम से सो जाते थे
'भाइर्स्साब ........ इलाहाबाद जंक्शन आने पर
जरा जगा दीजिएगा हमको'