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राग रामकली / पृष्ठ - २ / पद / कबीर

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राम राइ अबिगत बिगति न जानै, कहि किम तोहिं रूप बषानै॥टेक॥
प्रथमे गगन कि पुहमि प्रथमे प्रभू पवन कि पाँणीं।
प्रथमे चंद कि सूर प्रथमे प्रभू, प्रथमे कौन बिनाँणीं॥
प्रथमे प्राँण कि प्यंड प्रथमे प्रभू, प्रथमे रकत कि रेत।
प्रथमे पुरिष की नारि प्रथमे प्रभू, प्रथमे बीज की खेत॥
प्रथमे दिवस कि रैणि प्रथमे प्रभू, प्रथमे पाप कि पुन्य।
कहै कबीर जहाँ बसहु निरंजन, तहाँ कुछ आहि कि सुन्य॥164॥

अवधू सो जोगी गुर मेरा, जौ या पद का करै नबेरा॥टेक॥
तरवर एक पेड़ बिन ठाढ़ा, बिन फूलाँ फल लागा।
साखा पत्रा कछू नहीं वाकै अष्ट गगन मुख बागा॥
पैर बिन निरति कराँ बिन बाजै, जिभ्या हीणाँ गावै।
गायणहारे के रूप न रेषा, सतगुर होई लखावे॥
पषी का षोज मीन का मारग, कहै कबीर बिचारी।
अपरंपार पार परसोतम, वा मूरति बलिहारी॥165॥

अब मैं जाँणिबौ रे केवल राइ की कहाँणी।
मझां जोति राम प्रकासै, गुर गमि बाँणी॥टेक॥
तरवर एक अनंत मूरति, सुरताँ लेहू पिछाँणीं।
साखा पेड़ फूल फल नाँहीं, ताकि अंमृत बाँणीं॥
पुहुप बास भवरा एक राता, बरा ले उर धरिया।
सोलह मंझै पवन झकोरैं, आकासे फल फलिया॥
सहज समाधि बिरष यह सीचा, धरती जरु हर सोब्या।
कहै कबीर तास मैं चेला, जिनि यहु तरुवर पेष्या॥166॥

राजा राम कवन रंगै, जैसैं परिमल पुहुप संगैं॥टेक॥
पंचतत ले कीन्ह बँधाँन, चौरासी लष जीव समाँन।
बेगर बेगर राखि ले भाव, तामैं कीन्ह आपको ठाँव॥
जैसे पावक भंजन का बसेष, घट उनमाँन कीया प्रवेस॥
कह्यो चाहूँ कछु कह्या न जाइ, जल जीव ह्नै जल नहीं बिगराइ॥
सकल आतमाँ बरतै जे, छल बल कौं सब चान्हि बसे॥
चीनियत चीनियत ता चीन्हिलै से, तिहि चीन्हिअत धूँका करके॥
आपा पर सब एक समान, तब हम पावा पद निरबाँण॥
कहै कबीर मन्य भया संतोष, मिले भगवंत गया दुख दोष॥167॥

अंतर गति अनि अनि बाँणी।
गगन गुपत मधुकर मधु पीवत, सुगति सेस सिव जाँणीं॥टेक॥
त्रिगुण त्रिविध तलपत तिमरातन, तंती तत मिलानीं।
भाग भरम भाइन भए भारी, बिधि बिरचि सुषि जाँणीं॥
बरन पवन अबरन बिधि पावक, अनल अमर मरै पाँणीं।
रबि ससि सुभग रहे भरि सब घटि, सबद सुनि तिथि माँही॥
संकट सकति सकल सुख खोये, उदित मथित सब हारे।
कहैं कबीर अगम पुर पाटण, प्रगटि पुरातन जारे॥168॥

लाधा है कछू लाधा है ताकि पारिष को न लहै।टेक॥
अबरन एक अकल अबिनासी, घटि घटि आप रहै॥टेक॥
तोल न मोल माप कछु नाहीं, गिणँती ग्याँन न होई।
नाँ सो भारी नाँ सो हलका, ताकी पारिष लषै न कोई॥
जामैं हम सोई हम हा मैं, नीर मिले जल एक हूवा।
यों जाँणैं तो कोई न मरिहैं, बिन जाँणैं थै बहुत मूवा॥
दास कबीर प्रेम रस पाया, पीवणहार न पाऊँ।
बिधनाँ बचन पिछाँड़त नाहीं, कहु क्या काढ़ि दिखाऊँ॥169॥

हरि हिरदे रे अनत कत चाहौ, भूलै भरम दुनी कत बहौ॥टेक॥
जग परबोधि होत नर खाली, करते उदर उपाया।
आत्म राम न चीन्हैं संतौ, क्यूँ रमि लै राम राया॥
लागै प्यास नीर सो पीवै, बिन लागै नहीं पीवै।
खोजै तत मिलै अबिनासा, बिन खोजैं नहीं जीवै।
कहै कबीर कठिन यह कारणीं जैसी षंडे धारा।
उलटि चाल मिलै परब्रह्म कौं, सो सतगुरु हमारा॥170॥

रे मन बैठि कितै जिनि जासी, हिरदै सरोवर है अबिनासी॥टेक॥
काया मधे कोटि तीरथ, काया मधे कासी।
माया मधे कवलापति, काया मधे बैकुंठबासी॥
उलटि पवन षटचक्र निवासी, तीरथराज गंगतट बासी॥
गगन मंडल रबि ससि दोइ तारा, उलती कूची लागि किंवारा।
कहै कबीर भई उजियारा, पच मारि एक रह्यौ निनारा॥171॥

राम बिन जन्म मरन भयौ भारी।
साधिक सिध सूर अरु सुरपति भ्रमत भ्रमत गए हारी॥टेक॥
व्यंद भाव म्रिग तत जंत्राक, सकल सुख सुखकारी।
श्रवन सुनि रवि ससि सिव सिव, पलक पुरिष पल नारी॥
अंतर गगन होत अंतर धुँनि बिन सासनि है सोई।
घोरत सबद सुमंगल सब घटि, ब्यंदत ब्यदै कोई॥
पाणीं पवन अवनि नभ पावक, तिहि सँग सदा बसेरा।
कहै कबीर मन मन करि बेध्या, बहुरि न कीया फेरा॥172॥

नर देही बहुरि न पाइये, ताथैं हरषि हरषि गुँण गाइये॥टेक॥
जब मन नहीं तजै बिकारा, तौ क्यूँ तरिये भौ पारा॥
जे मन छाड़ै कुटिलाई, तब आइ मिलै राम राई।
ज्यूँ जींमण त्यूँ मरणाँ, पछितावा काजु न करणाँ।
जाँणि मरै जे कोई, तो बहुरि न मरणाँ होई॥
गुर बचनाँ मंझि समावै, तब राम नाम ल्यौ लावै॥
जब राम नाम ल्यौ लागा, तब भ्रम गया भौ भागा॥
ससिहर सूर मिलावा, तब अनहद बेन बजावा॥
जब अनहद बाजा बाजै, तब साँई संगि बिराजै॥
होत संत जनन के संगी, मन राचि रह्यो हरि रंगी॥
धरो चरन कवल बिसवासा, ज्यूँ होइ निरभे पदबासा॥
यहु काचा खेल न होई, जन षरतर खेलै कोई॥
जब षरतर खेल मचावा, तब गगनमंडल मठ छावा॥
चित चंचल निहचल कीजै, तब राम रसाइन पीजै॥
जब राम रसाइन पीया, तब काल मिट्या जन जीया॥
ज्यूँ दास कबीरा गावै, ताथैं मन को मन समझावै॥
मन ही मन समझाया, तब सतगुर मिलि सचु पाया॥173॥