राग हंसध्वनि / दृश्य 6 / कुमार रवींद्र
दृश्य - छः
[ दमयन्ती एकांत में बैठी है - केशिनी प्रवेश करती है - दमयन्ती से कहती है ]
केशिनी - : विप्रदेव एक अभी आये हैं ...
लाये हैं सूचना ...
दमयन्ती - ( उत्साह से ) : आर्यपुत्र मिले उन्हें ?
कहाँ और कैसे हैं प्रिय मेरे ?
लाओ विप्रदेव को सादर ...
त्वरा करो, केशिनी !
[ केशिनी कक्ष के द्वार पर जाकर आवाज़ देती है | द्वार से एक प्रौढ़ ब्राह्मण प्रवेश करते हैं| केशिनी उन्हें आसन देती है| दमयन्ती दासी से जलपात्र लेकर ब्राह्मण के पाँव धोती है और उन्हें विधिवत नमन आदि करती है| तदनन्तर अत्यंत उत्सुकता से पूछती है ]
दमयन्ती - : विप्रश्रेष्ठ !
कहें ... कहाँ मिले आर्यपुत्र आपको ?
मेरा संदेश कहा आपने ...
क्या बोले ?
आयेंगे कब तक वे ?
ब्राह्मण - : धीर धरो, देवी !
बतलाता हूँ -
दूर ... बहुत दूर है अयोध्या ...
नगरी श्रीराम की |
मार्ग में
ग्राम-ग्राम, नगर-नगर
मैंने संदेश कहा देवी का
किन्तु कहीं भी कोई मिला नहीं
उत्तर जो देता कुछ
आपके गुह्य प्रश्न का |
और फिर अयोध्या में
पंथागार ...
राज्य-सभा, जनपद में सभी ज़गह
मैंने दोहराया वह प्रश्न ...
बार-बार |
हो निराश जाता था जनपद से दूर ...
निर्जन वनखंडी में
वहीँ मिला मुझको वह व्यक्ति ...
तेजस्वी दिखता था
लेकिन था अति कुरूप-
मार्ग रोक मेरा वह बोला था गहरा उच्छ्वास ले -
विप्रदेव !
कहियेगा देवी से
अर्द्धवस्त्र लेकर जो पति उनको छोड़ गया
निराधार-निस्सहाय
वह था निश्चित हतभागा ही ...
स्वयं बहुत पीड़ित था -
क्षुधाग्रस्त और दुखी
पत्नी की रक्षा औ' पालन में
था वह असमर्थ
और ...
तुम भी हठ ठाने थीं ...
ऐसे में बोलो, वह क्या करता ?
व्यापी थी उसको दुर्बुद्धि
तभी छोड़ गया इस तरह |
प्रियाहीन वह केवल साँसें ही ले रहा
प्राण तो तुम्हारे ही पास हैं |"
कुछ रुककर ...
अश्रुधार भिगो रही थी उसके चेहरे को
जिस पर थे धब्बे और दाग कई ...
लगता था कैसा वीभत्स और भद्दा वह |
हाँ, कुछ रुककर
अश्रुसिक्त वाणी में बोला था -
"कहना उस देवी से
ऐसे में उसका अपराध यह
बोलो क्या क्षम्य नहीं ?
राज्य, धर्म, लक्ष्मी, तेज, वैभव
इन सबसे वंचित था
सह्य नहीं था उसको निरपराध प्रिय सहे
कष्ट और विपदाएँ ..."
और फिर ... उसका था रुंधा कंठ |
कुछ क्षणों बाद पुनः बोला था -
"देवी से कहना
पति ने मर्यादा निज छोड़ी थी बेबस हो -
देवी उसे ... अपनी मर्यादा से क्षमा करें
रक्षा करें उसकी मर्यादा की ..."
और फिर आगे वह बोल नहीं पाया था कुछ भी |
अपना मुँह मोड़कर
चला गया था था सूने वन-पथ पर वह ...
विस्मित हूँ अब तक मैं ...
बाद में ...
मिला मुझे वार्ष्णेय
बतलाया उसने वह बाहुक था - राजा का सारथी...
है वह एकान्तप्रिय |
[ दमयन्ती की आखों से भी अश्रु-प्रवाह हो रहा है| अपने को संयत कर वह ब्राह्मण का सम्मान करती है, उनसे कहती है ]
दमयन्ती - : विप्रश्रेष्ठ !
आपने ... जो है उपकार किया
उसका प्रतिदान नहीं है संभव
फिर भी स्वीकारें यह ... तुच्छ भेंट
पुत्री यह आपकी
जीवन भर रहेगी कृतज्ञ और आभारी |
[ केशिनी से स्वर्णथाल लेकर उसमें रखी स्वर्ण मुद्राएँ और अन्न-सामग्री ब्राह्मण को दान देती है| ब्राह्मण प्रस्थान करते हैं | दमयन्ती केशिनी से कहती है ]
दमयन्ती - : निश्चित ही व्यक्ति वे, केशिनी
और कोई नहीं आर्यपुत्र हैं |
छद्म वेश धारे वे मुझको हैं छल रहे|
अब तो यह प्रतीक्षा है दुष्कर |
भेजूँगी अब तुरंत
आज ही अयोध्या मैं
बन्धुवर सुदेव को ...
वे ही तो लाये थे मुझे यहाँ ...
खोजकर ...
चेदि सभागार में
होता था उस दिन पुण्याह-पाठ -
करता था वाचन पुण्याह का विप्रवर्ग
और सभी सुनते थे मुग्ध उसे
तभी वहाँ पहुँचे थे विप्र-बन्धु ...
बैठी थी साथ मैं सुदेष्णा के -
राजा की पुत्री वह अतिरिक्त स्नेहिल थी मेरे प्रति
आभारी उसकी मैं रहूँगी पूरे जीवन-भर -
देख मुझे एकदम पहचान लिया बन्धु ने|
और फिर ...
महारानी ने भी माथा मेरा धुलवाया था -
भौहों के बीच जो ...
मेरे यह लाल-लाल तिल है
उससे पहचाना था |
विह्वल हो बोली थीं -
' कैसा अन्याय हुआ
अपनी ही बेटी को आश्रिता समझा मैंने -
मैं तेरी मौसी हूँ, दमयन्ती !
जन्म-समय ही देखा था मुझको
इसीलिए ऐसा अपराध हुआ |'
और फिर ...
आई थी पूरे सम्मान सहित
मैं अपने मातृगेह |
आज वही बन्धु-सखा विप्र फिर
होंगे सहाय मुझे |
केशिनी !
जाओ, सखी, उन्हें बुला लाओ अभी ...
[ केशिनी जाती है| नेपथ्य में हंस-ध्वनि सुनाई देती है ]
दमयन्ती - ( आत्मालाप ) : और सखे हंस !
चले आओ ...
और अधिक छलो नहीं अपनी हंसिनी को अब ...
आओ प्रिय, शीघ्र आओ ...
नल, मेरे प्रियतम |
देखो तो है निरीह ... कैसी है निस्सहाय
और आकुल ... तुम्हारी दमयन्ती |
छल से मैं टेर रही तुमको अब
लेना मत अन्यथा ...
और कोई मार्ग नहीं रहा है मेरे पास ...
आओ, नल ... आओ नल ! ...
[ हंस-क्रेंकार तेज हो जाती है ]