राग हंसध्वनि / दृश्य 8 / कुमार रवींद्र
दृश्य - आठ
[ दमयन्ती झरोखे के पार दूर तक दिखते पथ को उत्सुकता से निहार रही है| उसके मन में ऊहापोह चल रही है ]
दमयन्ती - ( आत्मालाप ) : यह कैसी मन में है उथल-पुथल ...
आशा-आशंका के बीच रहा झूल
आतुर यह मन मेरा |
उतर रहे धूप-क्षण हवाओं में
धूम अगरु-चन्दन के
और शिथिल गंध नये फूलों की -
पुलकित वातायन से आ रहे
आतुर संदेश कई -
अरुणोदय आर-पार साँसों के हो रहा -
आयेंगे प्रिय - कहतीं मनसिज इच्छाएँ हैं |
किन्तु यह ... चेतन मन क्रूर मुझे डरा रहा
कहता है - छलती है प्रियतम को
और साथ चाहती ... सूर्योदय हो अनंत |
पथ पर फिर
गुपचुप-सी आहट है सपनों की -
उठती है धूल और घूम रहा चक्र -
आता है रथ समीप
मेरी जिज्ञासा का - मेरे अनुरोधों का ...
[ एक रथ के वेग से हाँके जाने की तेज आवाज़ पटाक्षेप में गूँजती है| पारदर्शिका में दृश्य कौंधता है| बाहुक रूपी नल रथ को वायु-गति से संचालित कर रहे हैं| उनके निकट वार्ष्णेय भी रथ के अग्रभाग में बैठा है| पीछे के भाग में रथ को कसकर पकड़े अयोध्यापति महाराज महाराजण बैठे हैं| एकाएक महाराज का उत्तरीय उड़ जाता है| वे तुरंत आदेश देते हैं ]
ऋतुपर्ण - : रथ रोको, बाहुक !...
वार्ष्णेय जाओ, उत्तरीय उठा लाओ ...
बाहुक - : महाराज ! क्षमा करें
उत्तरीय आपका ...
हमसे अब योजन भर दूर है
व्यर्थ है प्रयत्न उसे लाने का |
ऋतुपर्ण - : अद्भुत है ...
अद्वितीय... अश्वों का संचालन यह !
बाहुक, कैसा यह कौशल है
कैसी है लय ... जैसे बहता संगीत हो
अश्वों की टापों की !
वेग और गति अनुपम ...
जैसे उनचासों पवन ... साथ-साथ बहते हों |
हाँ, बाहुक !
सचमुच तुम धन्य हो !
मैं भी द्यूतक्रीड़ा का पंडित हूँ
और अंक-विद्या का अद्वितीय ज्ञाता हूँ |
देख रहे वृक्ष वह ...
उस पर हैं पंच कोटि दस सहस्र इक्यावन पत्ते
और दो हज़ार बावन हैं फल उस पर ...
किन्तु रथ का संचालन यह दिव्य है ...
तुम सचमुच अप्रतिम हो |
क्या कहूँ ...
अपनी विद्याएँ तुम्हें देता हूँ
बदले में सिखा मुझे देना तुम
रथ-विद्या यह अद्भुत ... ...
[ पारदर्शिका धुँधला जाती है| गवाक्ष में अभी भी प्रतीक्षा में बैठी दमयन्ती को दूर पथ पर तेजी से आता हुआ रथ दिखाई देता है - उसकी साँसें और धडकनें तेज हो जाती हैं ]
दमयन्ती - ( स्वयं से ) : आते हैं आर्यपुत्र निश्चित ही -
रथ की गति और घरघराहट, दोनों ही
देते हैं साक्षी ...
केशिनी -( उत्साह से ) केशिनी ! अरे सखी ... कहाँ है तू ?
देख तो ...
[उसी समय केशिनी प्रवेश करती है - वह भी उत्साहित-उत्तेजित है | भागकर आने और अतिरिक्त उत्तेजित होने के कारण हाँफते-हाँफते वह कहती है]
केशिनी - : रथ आया ...
अभी-अभी नगर-द्वार से अंदर आया है
आये क्यों अयोध्यापति अकस्मात
आपके पिताश्री महाराज ...
विस्मित हैं -
वैसे ही विस्मित हैं कोसलेश |
वार्ष्णेय साथ है ...
किन्तु मुख्य सारथी, कहते हैं, अद्भुत है|
सौ योजन की यात्रा ...
बिना रुके ... एक ही दिन में -
अविश्वसनीय चमत्कार !
किन्तु सखी दमयन्ती !
वह है निषधराज नहीं ...
देखा है मैंने उसे दूर से -
क़द-काठी-रूप सभी हैं कुरूप |
दमयन्ती - : नहीं... नहीं... केशिनी !
मन मेरा झूठ नहीं कहता है
और देख ... ये सारे शुभ लक्षण...
वाम अंग सारे हैं फड़क रहे
मिलनेच्छा अंतर में जाग रही
रक्त में प्रवाह नया होता है ...
आतुरता व्याप रही देह में -
प्रिय मेरे आ गये
सारे संकेत ये |
[ तभी अश्वशाला में बँधे नल के निषध-प्रदेशी अश्वों की हिनहिनाहट सुनाई देती है| दमयन्ती उसे हर्षित हो सुनकर कहती है ]
दमयन्ती - : देखा, ये अश्व भी ... जान गये
आ पहुँचे हैं स्वामी |
केशिनी !
जाकर तू देख-परख बाहुक को
वह विचित्र व्यक्ति ही ...
मेरा मन कहता है -
हैं मेरे प्रिय स्वामी |
इन्द्रसेन और इन्द्रसेना को -
हाँ, दोनों बच्चों को ले जाना साथ, सखी
और कूट-संदेशा कहना यह -
अर्द्धवस्त्र पहने जो कर रही प्रतीक्षा है
उसका क्या दोष है ?
देव उसे दंडित क्यों कर रहे ?
हाँ, सुभगे !
आज का दिवस यह है
मेरे भाग्य की परीक्षा का -
यदि मैंने मन-वाणी-कर्म से
एकनिष्ठ प्रीति की है अपने प्रिय से ही
तो मझ अधूरी को पूर्ण करें सूर्यदेव ...
आज ही !
[ केशिनी के जाने के बाद दमयन्ती विचारों में खोयी बैठी रहती है| उसकी आकृति उसी स्थिति में स्थिर हो जाती है| आगे उसी दिन कुछ समय उपरांत - दोपहर - केशिनी तेजी से प्रवेश करती है | दमयन्ती की आकृति में भी हलचल प्रारंभ होती है ]
केशिनी - : अद्भुत है ... सचमुच ही अद्भुत है
व्यक्ति यह -
मनुज नहीं ... यह तो है शापभ्रष्ट देवता |
दमयन्ती ! ...
उसकी तो शक्तियाँ अलौकिक हैं |
दिखने में है कुरूप ... अति कुरूप -
कंधे हैं झुके हुए
कूबड़ है पीठ पर
हाथ-पैर हैं छोटे-छोटे बौने-से
चेहरा वीभत्स है -
उस पर हैं दाग कई |
किन्तु कार्य ...
सच में हैं देव-तुल्य-
अग्नि-वरुण-वायु सभी उसके आधीन हैं |
उसकी दृष्टि पड़ते ही
भरते जलपात्र सभी स्वयमेव -
हाथों में फूस का फूला लिया उसने
और उसे सूरज की ओर किया
निमिष मात्र में ही वह फूस स्वयं जल उठा -
अग्नि उसे जला नहीं पाती है |
और भी विचित्र बात एक दिखी -
द्वार एक छोटा था ...
किन्तु वह झुका नहीं
स्वयं द्वार ही ऊँचा हो गया |
क्या कहूँ ?
विस्मित-स्तंभित हूँ मैं तो, सखी !
[ दमयन्ती के चेहरे पर हर्ष एवं उल्लास का भाव केन्द्रित हो जाता है| वह कहती है ]
दमयन्ती - : मुझको था ज्ञात यह, केशिनी !
और कहो ...
बच्चों से क्या कहा बाहुक ने ?
कैसा व्यवहार किया उसने उन दोनों से ?
केशिनी - : बच्चों को देखकर
पहले वह सकुचाया ...
सिमट गया अपने में -
दुलराता रहा दृष्टि से अपनी ...
रोक नहीं पाया फिर अपने को -
दोनों को बिठा लिया गोद में |
कैसा आश्चर्य !
बच्चे भी डरे नहीं - सकुचे नहीं उससे -
आँखों में अश्रु भरे उसके -
लगता था, वर्षों से भरा-हुआ मन था |
अश्रु-गलित वाणी में बोला वह -
'केशिनी !...
ऐसे ही मेरे भी दो बच्चे -
यही आयु ... ऐसे ही अब दिखते होंगे वे|
वर्षों से मिला नहीं उनसे ...
पता नहीं कैसे हैं |
इन्हें देख मेरा मन भर आया -
क्षमा करें !'
और फिर ...
दुलराया उसने उन्हें विविध भाँति
कहने को कई पकवान दिए |
हाँ, रानी !
सुनते हैं ...
पाककला में भी वह है अद्वितीय ...
वार्ष्णेय कहता था -
कहने को है केवल सारथी
किन्तु वास्तव में राजा का है मित्र वह...
देते सम्मान उसे कोसलेश सखा-तुल्य|
[ दमयन्ती का चेहरा हर्षातिरेक से चमक रहा है| वह अत्यंत उद्वेलित है ]
दमयन्ती - : और सखी !
मेरा संदेश कहा ...?
बाहुक ने क्या कहा ?
केशिनी - : सुनकर संदेश हुआ विचलित वह =
डूब गया फिर गहरे सोच में |
कुछ पल के बाद कहा उसने -
'क्या कहूँ ...
होती है दैव-गति विचित्र बड़ी -
हम लौकिक प्राणी उसे जान नहीं पाते हैं -
देवों की इच्छा का - उनके उद्देश्यों का क्या कहें ?
देवी दमयन्ती का दोष नहीं ...
दोषी हैं निषधराज ही केवल -
स्वयं से पलायन था वह उनका
किन्तु करते भी क्या वे -
शापग्रस्त थे ... अपराधी अब अपनी पत्नी के |
देवी का अर्द्धवस्त्र पूरा हो शीघ्र ही ...
वे पूरा सुख पायें अपने नये जीवन से
प्रभु से है प्रार्थना यही मेरी !'
दमयन्ती - : अब तो विश्वास हुआ, केशिनी !
बाहुक ही महाराज नल हैं |
माँ से आदेश ले लिया मैंने ...
बाहुक से भेंट यहीं कक्ष में करूँगी मैं|
होता अपराह्न है -
बुला लाओ जाकर तुम शीघ्र उन्हें -
आज रात्रि होगी सौभाग्य की ...
व्रत जो मैं कर रही इतने दिन से ...
उसका हो अनुष्ठान आज ही
प्रभु-इच्छा यही, सुनो !
[ केशिनी चली जाती है| दमयन्ती फिर विचारमग्न हो जाती है| उसकी आकृति स्थिर हो जाती है| कुछ समय का अन्तराल| संध्या के पूर्व का काल| केशिनी के साथ बाहुक कक्ष के द्वार पर आकर ठिठक जाते हैं| वहीं से उम्हें गवाक्ष के निकट बैठी दमयन्ती की कृशकाय मलिन आकृति दिखाई देती हैं| उनके चेहरे पर विचलन स्पष्ट दिखाई देता है| केशिनी थोड़ी देर उन दोनों को देखती रहती है| फिर वह द्वार से अंदर प्रवेश करते हुए कहती है ]
केशिनी - : देवी दमयन्ती |
आये हैं कोसलेश के अनुपम सारथी ...
[ दमयन्ती अचकचा कर देखती है| द्वार पर खड़े बाहुक को अंदर लाने के लिए इंगित करती है| केशिनी बाहुक को दमयन्ती के निकट पड़े आसन पर बैठने का इंगित करती है| दमयन्ती कुछ चकित-विस्मित, कुछ संकुचित है बाहुक को देखकर| बाहुक उससे कहते हैं ]
बाहुक - : देवी, आदेश दें
प्रस्तुत है सेवक यह ... क्या आज्ञा ?
[ दमयन्ती उस स्वर से विचलित होती है| आवाज़ उसे विकृत-सी लगती है| फिर अपने को सँभालकर वह कहती है ]
दमयन्ती - : बाहुक ! तुम देश-देश घूमे हो -
यात्राएँ भी की होंगी ज़गह-ज़गह |
दिखे नहीं तुम्हें कहीं निषधराज |
वे तो हैं देव-तुल्य रूपवान ...
छिपे नहीं रह सकते बहुत देर लोगों की दृष्टि से|
सुनती हूँ तुममें हैं अद्भुत दिव्य शक्तियाँ -
ऐसी ही उनमें भी थीं |
वे थे पुरुषश्रेष्ठ ...
उनके सन्मुख ... देव भी होते थे संकुचित|
देख रहे मेरी यह दशा ...
मलिनमुखी कर रही प्रतीक्षा मैं उनकी ही |
अपने महाराज से क्षमा माँग लेना तुम ...
मेरी ओर से -
दमयन्ती समर्पिता है केवल नल को -
जन्म-जन्म उनकी ही रहेगी वह |
बाहुक, तुम रोते हो ...
बात क्या ?
छद्मवेश धारे तुम ... कहीं ...
[आत्म-विह्वलता के कारण आगे कुछ कह नहीं पाती | बाहुक रूपी नल भी अश्रु-प्रवाह कर रहे हैं| कुछ पल के मौन के बाद वे कहते हैं ]
बाहुक - : देवी ! ... नहीं-नहीं ... दमयन्ती !
मैं ही वह तथाकथित पुरुषश्रेष्ठ ...
देव-तुल्य ... कहने को पति तेरा
पर तेरा अपराधी हूँ -
नीच और पामर भगोड़ा वह
जो तुमको छोड़ महा-संकट में भाग गया|
लज्जित था ...लज्जित हूँ |
हाँ, मैं ही वह पातकी नराधम हूँ
जो तुमको ...
हाँ, अपनी इस प्रियतमा को
छोड़ घने जंगल में
एकाकी ... अरक्षिता ... भागा था |
पर तुमने अपनी मर्यादा से
अपने इस पापी ...
अपराधी पति को भी क्षमा किया -
एकाकी व्रत पाला नेम-प्रेम का -
धन्य हो |
दमयन्ती !
मैं हूँ अपरूप हुआ ...
कर पाओगी तुम मुझको स्वीकार यों -
इस विकृत रूप में ?
हास्यास्पद यह मेरा रूप है
तुम भी हास्यास्पद हो जाओगी
मुझको स्वीकार कर |
[ दमयन्ती स्नेहसिक्त दृष्टि से नल को देखते हुए कहती है ]
दमयन्ती - : आर्यपुत्र !
जैसे भी आप हैं ... हैं तो मेरे ही |
मेरा स्वीकार मुझे अग-जग का हास्य दे...
मुझको स्वीकार है ...
मैं हूँगी धन्य और |
नल और दमयन्ती ...
दोनों हैं एक रूप - एक प्राण ...अलग नहीं|
मुझको तो दिखते हैं आप
वैसे ही रूपवान
छ्लें नहीं और अधिक अपनी इस अनन्या को |
[ नल मुस्कराते हुए कर्कोटक नाग का दिया हुआ दिव्य वस्त्र ओढ़ लेते हैं और अपने पूर्व रूप में आ जाते हैं | केशिनी हंसते हुए कहती है ]
केशिनी - : महाराज !
आप बड़े छलिया हैं
और ...
मेरी यह सखी बड़ी भोली है|
इसका कल्याण तो अब प्रभु के ही हाथ में|
मैं चलती ... ...
बच्चों को भेजूँगी थोड़ी सी देर में |
देना है सुखद समाचार सभी को जाकर |
[ जाती है | नल-दमयन्ती आलिंगन-बद्ध होते हैं | स्वस्ति-वाचन के बीच देववाणी सुनाई देती है ]
देववाणी - : धन्य हो, दमयन्ती !
और नल, तुम भी हो धन्य !
दोनों की प्रीति यह अलौकिक है |
हो तुम आदर्श ... शुद्ध प्रेम के
युग-युगों तुम्हारी यह गाथा ...
कही-सुनी जाएगी |
निषधराज !
जाओ शीघ्र निषध देश
प्राप्त करो अपना तुम राज्य पुनः -
राजा ऋतुपर्ण से जो तुमको प्राप्त हुए
नये द्यूतक्रीड़ा के मन्त्र हैं ...
उनका उपयोग करो -
छल से तुम हारे थे ...
कौशल से जीतो अब अपने अधिकार को |
शुद्ध हुए तन से ... हाँ, मन से भी -
जीवन भर बने रहो स्वप्नशील
और प्रजा का रंजन करो
सुखी रहो ... सुख दो तुम सबको ही -
देवों का तुमको आशीष यही |
[ नल-दमयन्ती की संयुक्त आकृति स्थिर हो जाती है - उन पर आकाश से पुष्प-वृष्टि होती है | हंसों की पाँत दूर क्षितिज पर उडती दिखाई देती है| एक हंस-युगल उस समूह से अलग होकर साथ-साथ उड़ते हुए उस अटारी तक आते हैं, जहाँ नल-दमयन्ती आलिंगनबद्ध स्थिर बैठे हैं; उनकी मीठी क्रेंकारों से पूरा कक्ष भर जाता है | वीणा के सुरों के मध्य 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' का मन्त्र गूँजता है ] |