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राजकमल पर / केदारनाथ अग्रवाल

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वह मर गया
मौत को बुलाकर जल्दी

न जीने की मुक्ति पा गया वह
जीने के बंधन से त्रस्त

उसकी मुक्ति
उसे मिली
बैरोमीटर के टूटने से
जिंदगी नापता था जो
हरेक साँस की
गर्म हो या सर्द

उसका पहिया
पटरी से उतर गया
और वह
अकेले में लुढ़क गया
एक ऐसे वीरान में
जहाँ न कोई गाड़ी गई
न रुकी

उसका दर्द उसी का दर्द था
भीड़ से भागकर
अकेले में रहने
और सहने का
वह दर्द
उसे खा गया, मुक्ति के नाम पर

जहाँ तक जिया
और जितना जिया
खुद में जिया
और खुद के विचार से जिया
न हवाओं के साथ जुड़ा
न भविष्य की ओर मुड़ा

उसने लिखा
दिमाग की तनी नसों से
हाथ की तनी नसों से नहीं।
उसका काव्य-
उसके दिमाग के उबाल का काव्य और गद्य है
हाथ के काव्य और गद्य से भिन्न
उग्रतारा की ओर उन्मुख,
सर्वहारा से विमुख

वह जमीन जो उसकी थी
सबकी न थी
उस जमीन में कुछ न उगा सबका
न वह रही-न वह रहा

उसका शीशा गलत शीशा था
न जिसमें दुनिया थी-
न आदमी का मुँह
सिर्फ वह था
जिसे मुक्ति चाहिए थी
अपनी बलि देकर

उसकी मुक्ति बड़ी मँहगी है
न कोई चाहे
न कोई पाए
न कोई
जिंदगी गँवाए
उस-सी मुक्ति के लिए

रचनाकाल: १७-०४-१९६८