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राजनीति सब के बुझे के बुझावे के परी / रमाकांत द्विवेदी 'रमता'
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राजनीति सब के बुझे के बुझावे के परी।
देश फंसल बाटे जाल में, छोड़ावे के परी।
सहि के लाखों बरबादी, मिलल नकली आजादी,
एहके नकली से असली बनावे के परी।
कवनो वंशे करी राज, या कि जनता के समाज,
जतना जलदी, जइसे होखे, फरियावे के परी।
बड़-बड़ सेठ-जमींदार, पुलिस-पलटनिया हतेयार,
सब लुटेरन, हतेयारन के मिटावे के परी।
रूस, अमरीका से यारी, सारी दुनिया के बीमारी
अपना देश के एह यारी से बचावे के परी।
कहीं देश फिर ना टूटे, टूटल-फूटल बा से जुटे,
सबके हक के झण्डा ऊँचा फहरावे के परी।
सौ में पाँचे जहाँ सुखिया, भारत दुनिया ऊपर दुखिया
घर-घर क्रान्ति के सन्देशा पहुँचावे के परी।
रचनाकाल : 25.09.1984