राजस्थान / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’
जहाँ वीरता मूर्तिमंत हो हरती थी भूतल का भार,
जहाँ धीरता हो पाती थी धर्म-धुरीण-कंठ का हार,
जहाँ जाति-हित-बलि-वेदी पर सदा वीर होते बलिदान,
जहाँ देश का प्रेम बना था सुरपुर का सुखमय सोपान,
जिस अवनी के बाल-वृंद ने काटे बलवानों के कान,
चमकीं जहाँ वीर बालाएँ रणभू में करवाल-समान,
किए जहाँ के नृपति-कुल-तिलक ने कितने लोकोत्तर काम,
जिस लीलामय रंगअवनि में उपजे नाना लोक ललाम,
वहाँ आज क्यों सुन पड़ता है कलह-कंठ का प्रबल निनाद;
है बन रहा वहाँ पर प्रतिदिन क्यों प्रपंचियों का प्रासाद?
क्यों कायरता थिरक रही है गा-गाकर विलासिता-गान?
क्यों गौरव है रौरव बनता कर मदांधाता-मधु का पान?
जिसके एक-एक रज-कण पर लगी राजपूतों की छाप,
जिसका वातावरण समझता रण में पीठ दिखाना पाप,
जिसके पत्तो मर्मर रव कर रहे पढ़ाते प्रभुता-पाठ,
जिसके जीवन-संचारण से हरित हुआ था उकठा काठ,
अहह! आज किसलिए बन गया वह निर्जीवों का सिरमौर;
गरल वमन करता है क्यों वह, सुधा-भरित था जिसका कौर।
सुने धर्म का नाम हृदय में उसके क्यों होती है दाह?
क्यों बहता है मद-प्रवाह में, क्यों उसकी पंकिल है राह?
उठा-उठाकर अपने शिर को व्यथित अर्वली बारंबार,
अवलोकन करता है घिरता प्रिय प्रदेश में तिमिर अपार।
कभी विविध निर्झर-मिष उसके दृग से बहती है जल-धार,
कभी धारा में धाँस जाता है वह विलोककर अत्याचार।
परम सरसता-सहित प्रवाहित सरस्वती का पीकर आप,
दूर किया था मरुअवनी ने अपने अंतर का बहु ताप।
किंतु आज निज मातृभूमि की अति दयनीय दशा अवलोक,
प्रतिपल प्रतपित हो जाती है, शोकित बन जाता है ओक।
दूर खड़ा चित्तौड़-दुर्ग भी दिन-दिन होती दुर्गति देख,
चिंतित हो-होकर पढ़ता है निज कुंठित कपाल का लेख।
पुष्कर-सलिल-लहरियों के मिष बार-बार बनकर बहु लोल,
विदित व्यथा अपनी करता है, किंतु नहीं मुख सकता खोल।
उत्साहित प्रतिपल करते हैं किसी शक्ति के कुछ संकेत;
सुन पड़ती है अति अपूर्व धवनि, क्यों हो जाता नहीं सचेत।
किसी देव की दिव्य ज्योतियाँ हैं तन में कर रही प्रवेश;
मानस के शुचि-भाव-मुकुर में प्रतिबिंबित है भव आदेश।
जाग-जाग, तू बहुत सो चुका, अब तो अपने बल को तोल;
तिमिर टल चला, सूरज निकला, खोल-खोल, आँखों को खोल।
भारतमाता मुग्ध खड़ी है, जन-जन-मन है आशावान;
भारत तेरा बदन देखता है आकुल बन राजस्थान।