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राज़े-हस्ती क़ज़ा से पूछूँगा / रतन पंडोरवी

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 राज़े-हस्ती क़ज़ा से पूछूँगा
मौत क्या है बक़ा से पूछूँगा

हुस्न में शोखियाँ भी हैं कि नहीं
उन की शर्म-ओ-हया से पूछूँगा

बे-असर क्यों पलट के आया है
नालए-ना-रसा से पूछूँगा

तर्के-उल्फ़त से मुद्दआ क्या है
दिले-बे-मुद्दआ से पूछूँगा

ख़ुद शनासी का है मक़ाम कहां
किसी हक़ आश्ना से पूछूँगा

तह नशीनीं भी कोई हासिल है
ये किसी ना-ख़ुदा से पूछूँगा

उन के कूचे की है फ़ज़ा कैसी
ये नसीमो-सबा से पूछूँगा

उन के कूचे की है फ़ज़ा कैसी
ये नसीमो-सबा से पूछूँगा

मिल ही जायेगी ऐ 'रतन' मंज़िल
राह जब नक़्शे-पा से पूछूँगा।