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राज़ की बातें हैं तुमसे कह रही हूँ / अर्चना जौहरी
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राज़ की बातें हैं तुमसे कह रही हूँ
सुन सकोगे मैं तो कबसे सह रही हूँ
एक मुकम्मल-सी इमारत दिख रही हूँ
पर कहीं भीतर ही भीतर ढह रही हूँ
है हवाओं की ज़मीं बादल की छत है
मुद्दतों से जिस मकां में रह रही हूँ
ना कोई पतवार जिसकी ना ही माझी
इक उसी नैया की तरह बह रही हूँ
ओढ़ कर गहरे तिमिर की एक चादर
रौशनी को ख़ुद हवन-सी दह रही हूँ