राजा-बादशाह-मेल-खंड / मलिक मोहम्मद जायसी
मुखपृष्ठ: पद्मावत / मलिक मोहम्मद जायसी
सुना साह अरदासै पढीं । चिंता आन आनि चित चढी ॥
तौ अगमन मन चीतै कोई । जौ आपन चीता किछु होई ॥
मन झूठा, जिउ हाथ पराए । चिंता एक हिये दुइ ठाएँ ॥
गढ सौं अरुझि जाइ तब छूटै । होइ मेराव, कि सो गढ टूटै ॥
पाहन कर रिपु पाहन हीरा । बेधौं रतन पान देइ बीरा ॥
सुरजा सेंति कहा यह भेऊ । पलटि जाहु अब मान हु सेऊ ॥
कहु तोहि सौं पदमिनि नहिं लेऊँ । चूरा कीन्ह छाँडि गढ देऊँ ॥
आपन देस खाहु सब औ चंदेरी लेहु ।
समुद जो समदन कीन्ह तोहि ते पाँचौ नग देहु ॥1॥
सुरजा पलटि सिंघ चढि गाजा । अज्ञा जाइ कही जहँ राजा ॥
अबहूँ हिये समुझु रे, राजा । बादसाह सौ जूझ न छाजा ॥
जेहि कै देहरी पृथिवी सेई । चहै तौ मारै औ जिउ लेई ॥
पिंजर माहँ ओहि कीन्ह परेवा । गढपति सोइ बाँच कै सेवा ॥
जौ लगि जीभ अहै मुख तोरे । सँवरि उघेलु बिनय कर जोरे ॥
पुनि जौ जीभ पकरि जिउ लेई । को खोले, को बोले देई ?॥
आगे जस हमीर मैमंता । जौ तस करसि तोरे भा अंता ॥
देखु ! काल्हि गड टूटै, राज ओहि कर होइ ।
करु सेवा सिर नाइ कै, घर न घालु बुधि खोइ ॥2॥
सरजा ! जौ हमीर अस ताका । और निवाहि बाँधि गा साका ॥
हौं सक- बंधी ओहि अस नाहीं । हौं सो भोज विक्रम उपराहीं ॥
बरिस साठ लगि साँठि न काँगा । पानि पहार चुवै बिनु माँगा ॥
तेहि ऊपर जौ पै गढ टूटा । सत सकबंधी केर न छूटा ॥
सोरह लाख कुँवर हैं मोरे । परहिं पतँग जस दीप- अँजोरे ॥
जेहि दिन चाँचरि चाहौं जोरी । समदौं फागु लाइ कै होरी ॥
जौ निसि बीच, डरै नहिं कोई । देखु तौ काल्हि काह दहुँ होई ॥
अबहिं जौहर साजि कै कीन्ह चहौं उजियार ।
होरी खेलौं रन कठिन, कोइ समेटै छार ॥3॥
अनु राजा सो जरै निआना । बादसाह कै सेव न माना ॥
बहुतन्ह अस गढ कीन्ह सजवना । अंत भई लंका जस रवना ॥
जेहि दिन वह छेंकै गढ घाटी । होइ अन्न ओही दिन माटी ॥
तू जानसि जल चुवै पहारू । सो रोवै मन सँवरि सँघारू ॥
सूतहि सूत सँवरि गढ रोवा । कस होइहि जौ होइहि ढोवा ॥
सँवरि पहार सो ढारै आँसू । पै तोहि सूझ न आपन नासू ॥
आजु काल्हि चाहै गढ टूटा । अबहुँ मानु जौ चाहसि छूटा ॥
हैं जो पाँच नग तो पहँ लेइ पाँचो कहँ भेंट ॥
मकु सो एक गुन मानै, सब ऐगुन धरि मेट ॥4॥
वह तुम्हारे इस एक ही गुण से सब अवगुणों को भूल जाय ।
अनु सरजा को मेटै पारा । बादसाह बड अहै तुम्हारा ॥
ऐगुन मेटि सकै पुनि सोई । औ जो कीन्ह चहै सो होई ॥
नग पाँचौ देइ देउँ भँडारा । इसकंदर सौं बाँचै दारा ॥
जौ यह बचन त माथे मोरे । सेवा करौं ठाढ कर जोरे ॥
पै बिनु सपथ न अस मन माना । सपथ बोल बाचा-परवानाँ ॥
खंभ जो गरुअ लीन्ह जग भारू । तेहि क बोल नहिं टरै पहारू ॥
नाव जो माँझ भार हुँत गीवा । सरजै कहा मंद वह जीवा ॥
सरजै सपथ कीन्ह छल बैनहि मीठै मीठ ।
राजा कर मन माना , माना तुरत बसीठ ॥5॥
हंस कनक पींजर-हुँत आना । औ अमृत नग परस-पखाना ॥
औ सोनहार सोन के डाँडी । सारदूल रूपे के काँडी ॥
सो बसीठ सरजा लेइ आवा । बादसाह कहँ आनि मेरावा ॥
ए जगसूर भूमि-उजियारे । बिनती करहिं काग मसि-कारे ॥
बड परताप तोर जग तपा । नवौ खंड तोहि को नहिं छपा ?॥
कोह छोह दूनौ तोहि पाहाँ । मारसि धूप, जियावसि छाहाँ ॥
जो मन सूर चाँद सौं रूसा । गहन गरासा, परा मँजूसा ॥
भोर होइ जौ लागै उठहिं रोर कै काग ।
मसि छूटै सब रैनि कै, कागहि केर अभाग ॥6॥
करि बिनती अज्ञा अस पाई । "कागहु कै मसि आपुहि लाई ॥
पहिलेहि धनुष नवै जब लागै । काग न टिकै, देखि सर भागै ॥
अबहूँ ते सर सौंहैं होहीं । देखैं धनुक चलहिं फिरि त्योंहीं ॥
तिन्ह कागन्ह कै कौन बसीठी । जो मुख फेरि चलहिं देइ पीठी ॥
जो सर सौंह होहिं संग्रामा । कित बग होहिं सेत वै सामा ?॥
करै न आपन ऊजर केसा । फिरि फिरि कहै परार सँदेसा ॥
काग नाग ए दूनौ बाँके । अपने चलत साम वै आँके ॥
"कैसेहु जाइ न मेटा भएउ साम तिन्ह अंग ।
सहस बार जौ धोवा तबहुँ न गा वह रंग ॥7॥
"अब सेवा जो आइ जोहारे । अबहूँ देखु सेत की कारे ॥
कहौं जाइ जौ साँच, न डरना । जहवाँ सरन नाहिं तहँ मरना ॥
काल्हि आव गढ ऊपर भानू । जो रे धनुक, सौंह होइ बानू"
पान बसीठ मया करि पावा । लीन्ह पान, राजा पहँ आवा ॥
जस हम भेंट कीन्ह गा कोहू । सेवा माँझ प्रीति औ छोहू ॥
काल्हि साह गढ देखै आव । सेवा करहु जेस मन भावा ॥
गुन सौं चलै जो बोहित बोझा । जहँवाँ धनुक बान तहँ सोझा ॥
भा आयसु अस राजघर, बेगि दै करहु रसोइ ।
ऐस सुरस रस मेरवहु जेहि सौं प्रीति-रस होइ ॥8॥
(1) चीते = सोचे, विचारे । चिंता एक...ठाएँ = एकहृदय में दौ ओर की चिंता लगी ।
गढ सौं...टूटै = बादशाह सोचता है कि गढ लेने में जब उलझ गए हैं तब उससे तभी छूट
सकते हैं जब या तो मेल हो जाय या गढ टूटे । पाहन कर रिपु ....हीरा = हीरे पत्थर का
शत्रु हीरा पत्थर ही होता है अर्थात् हीरा हीरे से ही कटता है । पान देइ बीरा = ऊपर
से मेल करके । मानहु सेऊ = आज्ञा मानो । चूरा कीन्ह = एक प्रकार से तोडा हुआ गढ ।
खाहु = भोग करो । समदन कीन्ह = बिदा के समय भेंट में दिए थे ।
(2) उघेलु = निकाल। हमीर = रनथंभौर का राजा, हमीरदेव जो अलाउद्दीन से लडकर मारा गया था । तस = वैसा । घर न घालु = अपना घर न बिगाड ।
(3) ताका = ऐसा बिचारा ॥ साँठि = सामान । काँगा कम होगा । समदौं = बिदा के समय का मिलना मिलूँ । जो निसि बीच....दहुँ होई = (सरजा ने जो कहा था कि `देखु काल्हि गढ टूटै ' इसके उत्तर में राजा कहता है कि) एक रात बीच में पडती है (अभी रात भर का समय है) तो कोई डर की बात नहीं; देख तो कल क्या होता है?
(4) अनु = फिर । सजवना = तैयारी । रवना = रावण । अन्न माटी होइ = खाना पीना हराम हो जायगा । सँघारू = संहार, नाश । ढोवा = लूट । मकु सो एक गुन....मेट = शायद
(5) को भेट पारा = इस बात को कौन मिटा सकता है कि । भँडारा = भंडार से । जो यह बचन = जो बादशाह का इतना ही कहना है तो मेरे सिर मत्थे पर से । बाचा-परवाँना = बचन का प्रमाण है । नाव जो माँझ...गीवा = जो किसी बात का बोझ अपने ऊपर लेकर बीच में गरदन हटाता है । छल = छल से । बसीठ माना = सुलह का सँदेस मान लिया ।
(6) सोनहार= समुद्र का पक्षी । काँडी = पिंजरा ? बिनती करहिं काग मसि कारे = हे सूर्य ! कौए बिनती करते हैं कि उनकी कालिमा ( दोष, अवगुण) दूर कर दे अर्थात् राजा के दोष क्षमा कर । कोह = क्रोध । छोह = दया, अनुग्रह । धूप = धूप से । छाहाँ = छाँह में, अपनी छाया में । परा मँजूसा = झाबे में पड गया अर्थात् घिर गया । कागहि केर अभाग = कौए का ही अभाग्य है कि उसकी कालिमा न छूटी ।
(7) कागहु कै मसि...लाई = कौवै की स्याही तुम्हीं ने लगा ली है (छल करके) वे कौए नहीं हैं। पहिलेहि...भागै = जो कौवा होता है वह ज्योंही धनुष खींचा जाता है भाग जाता है । अबहूँ..होहों = वे तो अब भी यदि उनके सामने बाण किया जाय तो तुरंत लडने के लिये फिर पडेंगे । धनुक = युद्ध के लिये चढी कमान, टेढापन, कुटिलता । सर = शर तीर, ताल, सरोवर । जो सर....सामा = जो लडाई में तीर के सामने आते हैं वे श्वेत बगले काले कैसे हो सकते हैं ? करै न आपन....सँदेसा = तू अपने को शुद्ध और उज्ज्वल नहीं करता, केवल कौवों की तरह इधर का उधर सँदेसा कहता है (कवि लोग नायिकाओं का कौए से सँदेशा कहना वर्णन करते हैं)। अपने चलत...आँके = वे एक बात पर दृढ रहते हैं और सदा वही कालिमा ही प्रकट करते हैं पर तू अपने को और का और प्रकट करके छल करता है ।
(8) अब सेवा...जोहारे = उन्होंने मेल कर लिया है, तू अब भी देख सकता है कि श्वेत हैं या काले अर्थात् वे छल नहीं करेंगे । जो रे धनुक ..बानू = जो अब वह किले में मेरे जाने पर किसी प्रकार की कुटिलता करेगा तो उसके सामने फिर बाण होगा ( धनुष टेढा होता है और बाण सीधा ) । गुन = गून, रस्सी । जहँवा धनुक ....सोझा = जहाँ कुटिलता हुई कि सामने सीधा बाण तैयार है ।