राजा को सब क्षमा है / विजय किशोर मानव
राजा को सब क्षमा है
क्षमा है
मृगया में निर्दोष हिरणों का वध
इस पर खुश होना
हमेशा के लिए बंद होती
कातर आंखों से भी आहत न होना,
क्षमा है द्यूत-क्रीड़ा
भाई और पत्नी दांव पर लगाना
हारना उन्हें और राजपाट को
एक नहीं कई-कई बार।
क्षमाहै
स्वच्छंद भोग-विलास
हरमों में बंदी बनाना सौंदर्य को/यौवन को
चुन-चुनकर
रजस्वला ही जीती रहें निवासों में
अनेकानेक अतृप्त-काम रानियां,
हरमों में बंधक बांदियां
तरसती रहें मृत्यु तक
राजा की एक झलक तक को,
सब क्षमा है राजा को।
राजनैतिक प्रतिद्वन्द्वियों को
लांछन, कारागार, फांसी
हुमककर चढ़ बैठना ब्वाय की कुर्सी पर
परोसना-सनकें/फरमान तुगलकी
गूंगी-भूखी निरीह भीड़ों के लिए
आतताई मुद्राओं के साथ
हमेशा था और अब भी क्षमा है राजा को।
लेकिन सिंकदर
अब नहीं होता निरुत्तर साधु से संवाद कर
और न करता पोरस के साथ
व्यवहार एक राजा जैसा
नहीं करता क्षमा।
सर कलम करता है
साधु और पोरस के,
राजा को क्षमा नहीं करता
अपने दौर का कोई भी सिंकदर
सिंकदर ही क्यों
कोई सगा से सगा उत्तराधिकारी भी
नहीं करता है क्षमा।
यह दौर क्षमाहीन शासकों का
देख रहा हूं
अमरबेल क्षमाहीनता की
फैलकर जड़ों तक जाती,
पीले-पीले डोरों के जाल के बीच
वटवृक्ष प्रजातंत्र का।
कोई क्षमा नहीं करता अब
राजा को, भाई को, पिता को
एक जाति, दूसरी जाति को
वर्ग, दूसरे वर्ग को
धर्म, दूसरे धर्म को
स्त्री, पुरुष को/नई पीढ़ी, पुरानी को
और आज का दौर, इतिहास को।
सदियों क्षमा किए गये राजा से
हिसाब मांगना एक बात है
लेकिन कांप गया हूं मैं
देखकर फैलता साम्राज्य
प्रतिशोध का, दंड का, प्रतिघात का
क्षमा की जगह!
मत करिये यकीन मेरे कहे पर
उठाइए ताजा अखबार और
आंखे टिकाने के लिए चुन लीजिए
कोई भी पृष्ठ अपनी मर्जी का।