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राजा बहरे थे / असंगघोष

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दास्तां-ए-गुलामी बयां करता
अंग्रेजियत की शताब्दी पर बना
कीर्ति-स्तम्भ खड़ा है अकड़ा हुआ
जिसकी नींव में गिरकर मरे
बेगार करते कई दलित बेमौत
उनका क्रन्दन अब भी गूँज रहा है।

घण्टाघर के हर ठोके के साथ
महल की दीवारों से टकराकर लौटती है
उनकी शान्त आवाज
जिसे सुनने के लिए
राजा के कान नहीं थे तैयार।
बचे-खुचे दलित मजदूरों को
रियाया ने भीख दी काम के बदले
उनकी आत्मा
आज भी भटक रही है
गलियों में भीख माँगने।