राज महल के नग़्में जो भी गाते हैं
उन के दामन मुहरों से भर जाते हैं
ख़ाली दामन लोग शहर को जाते हैं
झोले में उम्मीदें भर कर लाते हैं
भीग रहे हैं हम तो सर से पाँवों तक
कैसे छप्पर , कैसे उनके छाते हैं
करते हैं बरसात की बातें सूखे में
और पानी की बूँदों से डर जाते हैं
ढल जाता है सूरज की उम्मीद में दिन
ऐसे भी तो फूल कई मुरझाते हैं
पाए हैं जो सच कहने की कोशिश में
अब तक उन ज़ख़्मों को हम सहलाते हैं
बस्ती के कुछ लोग ख़फ़ा हैं गीतों से
फिर भी हैं कुछ लोग यहाँ जो गाते हैं
‘द्विज’ जी ! कैसे कह लेते हो तुम ग़ज़लें ?
ये अनुभव तो आते—आते आते हैं