रात्रियाँ / प्रतिभा सक्सेना
रात्रियाँ बड़ी मायावी बहुरूपिणि सी
सब दृष्य-जगत में फैला अपना आँचल,
कुछ चित्र-विचित्र-लोक सा रच देती हैं,
कुछ बहुत अतीन्द्रिय श्वेत और कुछ श्यामल!
हर रात्रि भिन्न अस्तित्व लिये आती है,
हर रात्रि रूप धरती है एक अनोखा
हर रात्रि नया ही लोक बसाती अपना,
संसार दिखाती है अपने सपनों का!
तब रातें झिलमिल लगा चाँद की बिंदिया,
छमछम नाचा करतीं थीं सारे वन में,
रेशमी चुनरिया तारों की लहराती,
झाँका करती थीं चंचल सरिता-जल में!
आड़े तिरछे-वर्तुल आकार बनाती
अविराम बढ़ी जाती हैं चंचल लहरें,
नन्हे-नन्हें शिखरों पर आरोहित हो,
खिलखिल हँसती झिलमिल बिखराती किरणें!
छा जातीं जल की निचली सतहों तक जा
तल में प्रकाश आभा बरसाती किरणें
ऊपर से नीचे उतर-उतर बिछ जातीं
चंचल लहरों के साथ चटुल सी किरणें!
लहरों के झूलों में बल खाती किरणें,
वे छहर छहर बिखरी सी जातीं किरणें
हर बुद्-बुद् में घुसतीं, फेनों में धँसतीं
दर्पण-दर्पण बिम्बित हो जातीं किरणें!
लहरों में घुलमिल कर निशि-पति की किरणें
छेड़ा करती थीं जल-तरंग की ताने,
दिन-रात साथ रह कर भी यह लगता था,
इक दूजे को कुछ और-और पहचाने!
चन्द्रमा उदय से अस्तकाल तक दोनों,
बैठे होते चाँदनी वि-चित्रित भूपर,
करतीं अभिषेक सुगन्ध भरे झोंकों से,
वन-वृक्षलतायें पत्र-पुष्प ले लेकर।
अनगिनत रात्रियाँ अंतरंग बतियाते,
जब सारे प्रहर बीत जाते अनसोये।
उजली रातें राघव के साथ विचरते,
साँवली रात्रियाँ इक-दूजे में खोये!
वे रातें जिनमें चाँद, क्षितिज से उठता,
धीरे-धीरे सारे नभ पर छा जाता,
मधुभरी मदभरी रातों का वह आँचल,
दोनों को अपने में समेट दुलराता!
मैनें पूछा अपने ही मन की कर मैं
आई वन, तुम पर कोई आँच न आये,
मेरे कारण तुम किसी विपद् से उलझो,
मेरे कारण कुछ रंग-भंग हो जाये!
मैं होता एकाकी वनवासी सीते,
तुमने तो आकर स्वर्ग यहीं रच डाला,
तुमको पाया है वीर्य शुल्क में देकर,
पड़ जाये चाहे किसी शत्रु से पाला!
पर पाला तो अपनो से पड़ा तुम्हारा,
तुम अपने से ही हार गये इस भ्रम में,
सर्वोपरि बनने के प्रयास की परिणति
होनी थी जीवन-मूल्यों के अतिक्रम में!
अब भी तो आँखों में रातें कट जाती,
शैशव के संरक्षण में औ चिन्तन में,
सीता अपने में डूबी-सी, खोई-सी,
जाने क्या-क्या घटता रहता है मन में!
जादू वाली अपनी आँचल छाया में,
निद्रा के श्यामल कर से मृदुल थपकती,
अन्तस् में छिपी निगूढ कामनाऔँ को,
ग्रन्थियाँ खोल सपनो में परिणत करती।
चुपचाप मौन अपने में ही खोई सी
सीता भीतर गहरे में डूबी बैठी,
अपने ही आप चली आतीं मानस में
बीते दिवसों की यादें खट्टी-मीठी।
वृष-राषि सूर्य की तपन तपाती क्षिति को,
जैसे पग-पग हों बिछे हुये अँगारे,
तापों से भर लेटी होती छायायें,
वृक्षों के नीचे अपने पाँव पसारे!
कुछ बहुत शान्त कुछ चंचल कुछ तूफानी,
कोई उदास कोई प्रसन्न-सी रातें,
काटी हैं कितनी रातें वैदेही ने,
आगत के और विगत के सेतु मिलाते।
फिर वर्षा की सिसकारी भरती रातें,
भीगी वन माटी टप्-टप् वृक्ष-लतायें,
निद्रित लव-कुश को आँचल की छाया दे
आश्वस्ति हेतु दोनो बाहें लिपटाये,
जल-बूँदों से भीगा गहरा अँधियारा,
भारी पट सा अंबर से लिपटा जाता,
मन चल देता अज्ञात यात्राओं पर,
सीता का बस तन कुटिया में रह जाता!
अति सघन तिमिर तारों को डुबो-डुबो कर,
उलझी विद्युत रेखा से कुछ लिख जाता,
मेरा अदृष्ट इन मस्तक रेखाओं में,
आड़ा-तिरछा जैसे लिख गया विधाता!
रात्रियाँ शरद् की पुलकित स्वच्छ गगन में,
हल्के-हल्के मंथर-मंथर पग धरतीं,
उजले मेघों के झीने पट लहरातीं,
कोमल पग-तल नभ पर धरती पर धरतीं!
सर्दी की रातें गहरा कोहरा ओढे,
छिपती-छिपती उतरी आतीं दिन रहते,
दीर्घोच्वास् ठण्डी साँसें ले भरतीं,
औ रोम-रोम कंटक तीरों से भरते!
तम की कामरिया ओढ़े गहरी काली,
झिल्ली की झन्-झन् करतीं पल-पल बढतीं,
वे ठण्डी लम्बी रातें बोझ बनी सी,
धरती-तल पर अँधेर मचाती चलतीं!
हेमन्त हवायें झर-झर,हर-हर करतीं,
नूपुर पहने करतीं वन भर में विचरण,
शिव-विरह दग्ध होकर वन-वन भटकी हो,
विक्षुब्ध ग्लानि में लिपटी ज्यों दाक्षायणि!
पतझरी हवा बे-रोक-टोक रातों में,
सूखे पत्ते समेटती दौडी जाती!
सब दिशा भान भूली उन्मत्त हुई-सी
सारे भूतल पर भागम-भाग मचाती।
वैदेही अपने में डूबी-उतराती,
उठते थे बारंबार प्रश्न मानस में,
जन के सम्मुख स्वीकार न क्यों कर पाये,
संबंध पिता-पुत्री का मुझ में उन में!
मेरे कलंक को स्वीकारा, चुप रह कर,
सच कहने से कुछ मर्यादा घट जाये,
इसलिये सामने मेरे, राम न आये
मेरे संकट में मेरे काम न आये!
संशय वैषम्य घोलता भीतर-भीतर,
फिर निर्मल प्रेम राग कैसे बज पाता,
लाँछिता-नारि के पति की कुण्ठा पाले,
वे बचा ले गये अपने यश की गाथा!
झकझोर डालते सीता के मानस को,
उठ बारंबार निराशाओँ के झोंके,
विचलित हो जाती प्रहरों गुमसुम खोई,
अवसाद घेर लेता फिर गहरा होके!
ये वन अभिन्न हैं मुझसे क्योंकि इन्हीं में,
भूमिका बनी होगी इस जन्म-कथा की,
इनमें ही इति विधना ने लिख दी होगी,
मेरे अरण्य-रोदन एकान्त व्यथा की!