रात्रि-चर्या / विमल राजस्थानी
रवि-छवि निरख निकट,ले सिन्धु-लहर की ओट, प्रतीची-
ने केशर-शर तान कान तक, विहँस प्रत्यंचा खीँची
लाल हो गया रवि-आनन, अरूणिम झीनी घन-काया
साँध्य सुन्दरी ने चुपके से मौक्तिक,जाल बिछाया
हुआ तिरोहित रवि, शशि उलझा, लपका था कुछ पाने
(रूप-जाल से छिटक, दूर हो जाते चतूर सयाने)
देख परानी आभा जो चमका-दमका करते हैं
वे ही संध्या और निशा के करों हार वरते हैं
कर्मवीर के उदय-अस्त दोनो पूजे जाते हैं
भोगी और विलासी रति-पति के आड़े आते हैं
चंद्रोदय हो चला, काम के केशर-शर छुटे हैं
भीग गयी नख-शिखा वसुंधरा,ज्योति-कलश फुटे हैं
सुर-प्रदत दस अश्व धप्-धप् चाँदनी नहाये
गज-मुक्ता -मणि-जड़ित सुरथ में जुते, द्वार पर आये
आगे-पीछे सज-धजे द्वादश अश्चों पर प्रहरी
तलवारे कंधो पर नंगी, मूछें फहरी-फहरी
सांध्या-भ्रमण को यदा-कदा वासवदता जाती थी
जिधर दृष्टि फेंकती उधर ही मदिरा छलकाती थी
निश्चित थे पथ-मोड़, समूचा नगर सिमट आता था
झलक नयन पर झेल-झेल कर अतिशय सुख पाता था
गुँथी परस्पर सुन्दरियाँ छज्जों पर छायी जातीं
निरख-निरख वासवदता को अधिक-अधिक मदमातीं
नारी पर नर को मोहित होते सब ने देखा
किन्तु यहाँ नारी ही नारी का सर्वस्व लुटाती
मंत्र-मुग्ध देखती, इधर मन ही मन जल जाती थीं
यही सौत है जिसके कारण व्यथा-भार पाती थीं
लाख डाह-ईर्ष्या के मारे हृदय जला जाता था
किन्तु, बिना वासव को देखे चैन नहीं आता था
बच्चे समझा करते-दूध बताशे यह लायी है
धवल बादलो के रथ पर चढ़ चंद्राणी आयी है
तरुण समझते-उनके साथ सुरथ-संग झूम रहे हैं
श्वाँस केतकी-रज से सुरभित पीकर झूम रहे हैं
वृद्ध समझते उनकी तरुणाई सदेह लौटी है
भ्रू-विलास पाते न, भाग्य की रेखा ही खाटी है
यों ही बस, आबाल वृद्ध के कोमल मन झकझोरे
रूप-सिंधु के, चूम-चूम जाते तट को, हिलकोरे
जले प्रदीप, नगर में झिलमिल ज्योति-प्रभा छायी है
सांध्य-भ्रमण से तृप्त भुवन-सुन्दरी लौट आयी है
पश्चिम में टकटकी लगाये हैं मथुरा क वासी
कब निकलेगा चाँद, बनेगा कब सूर्य प्रवासी
कर्म-क्षेत्र सिमटेगा रे! कैसे दिन बितेगा
कब आयेगी सांझ, सूर्य का किरण-कलश रीतेगा
नभ का चाँद हँसेगा, णरी का मयंक विहँसेगा
कब संध्या की लाल चुनरिया का आँचल खिसकेगा
मलय वायु के पंखो पर चढ़ रथ की ध्वनि आयेगी
महलो से उठ नगर भवन तक सुरभि-मदिर छायेगी।
नगर वधू की पग पायल की रूनुनझुनुन गूँजेगी
जन-समुद्र लहरायेगा, यह ध्रा नही सूझेगी
ज्यों ही वासव के रथ की मृदु घर्-घर्-ध्वनि आती है
पथ के दायें-बायें उत्सुक भीड़ उमड़ जाती है
नगर-भवन तक जाने वाले जन-पथ सभी भरे हैं
छत पर चौबारों-छज्जों पर जन ही जन बिखरे हैं
एक झलक पाने को कंधो से कंधे छिलते हैं
ऐसे दृश्य नहीं भूतल पर और कहींमिलते हैं
इन्द्राणी है चकित, ईर्ष्या से तन-मन जलता है
आगे-पीछे जन समुद्र है, रथ यों ही चलता है
अर्द्धरात्रि तक नित्य नगर में धूम मचाने वाली
वासवदता भुवन मोहित मत्त बनाने वाली
जैसे ही यह नृत्य-मंच पर युगल चरण धरती है
रसिको की टोलियाँ मग्नमन हर्षनाद करती हैं
पड़ती थाप, तृदंग गूँज पर अभिनन्दन करता है
वंशी-ध्वनि वंदन करती, ढोलक उमंग भरता है,
वाणी होती प्रणत, गूँज डुंग-डुंग की छा जाती है
स्वर्ण-घुँघरूओं की छम-छम मदिरासव बरसाती है
दर्शक झूम-झूम जाते सुन-सुन मादक स्वर लहरी
लगता शशि-तारे ठहरें हों, धरती ठहरी-ठहरी
ऐसा नृत्य-गान पृथ्वी पर कहीं न और सुलभ है
देवराज को तथा देवताओ को भी दुर्लभ है
मनुज वेश में सुर धरती पर खिँचे चले आते हैं
बन का भृंग आलौकिक कला-सुमन पर मँडराते हैं
बलि-बलि जाती कोकिल कंठी पर समस्त रागिनियाँ
नक्षत्रो की गति को मंद बना देतीं पैजनियाँ
बेसुध से नारी-नर सुर-किन्नर आनंद उठाते
जय-जयकारों के मिश्रित स्वर अम्बर पर छा जाते
लौट रही है उर-साम्राज्ञी, चंवर लिये दासी है
छक पर भी अतृप्त बनी रहती जनता प्यासी है
थकी-थकी वासव, फिर भी प्रसन्न-प्रमुदित लगती है
अर्द्धरात्रि तक प्रशंसको की तृप्ति हेतु जगती है
नर्तक-श्लय रथ पर अधलेटी-सी पुलकित वासव है
उघरी गौर पिंडलियाँ रह-रह छलकातीं आसव हैं
रथ के हिचकालों से आँचल सरक-सरक जाता है
तने सुपुष्ट उरोजो से रति हास ढरक जाता है
त्रिवली ऊपर उठती, प्यासे अधर लिए कुछ पाने
किन्तु, सुवासित स्वेद-हार के पल्ले पड़ते दाने
युग्म रस-कलश मध्य क्षीण गहरी रेखा से चू कर
हो जातीं निहाल बूँदे त्रिवली-तृष्णा को छू कर
छिटपुट अलकें उड़ बंकिम भाैंहों को चूम रही है
बिंदी-दर्पण मे सम्मोहित छवियाँ झूम रही हैं
अर्द्ध निमीलित नयन, दूज के शशि-सी द्युति बंाकी हैं
बनी बावली भीड़ मुग्ध-मन निरख रही झाँकी है
लेकर जभी अलस अँगड़ाई वासव मुस्काती है
मुग्ध जन-दृगों में मंदिरा भर चमक-दमक जाती है
कृपा-कटाक्ष फेकती मानो बाँट रही हो व्रीड़ा
शिरा-शिरा में कोटि-कोटि रति पति करते हों क्रीड़ा
अभिवादन में जब भी वासव के करतल हिलते हैं
मादक नयन-झील में स्वर्णिम स्वप्न कमल खिलते हैं
पुलक-पुलक जाते हैंप्रमी, धन्य-धन्य होते हैं
लहराता है रूप-सिंधु, लगते असंख्य गोते है
आँखे है कि नहीं थकती हैं रूप-सुधा को पीते
वासव! तेरे बिना कौन जो जन-जन के मन जीते
पंक्ति-बुद्ध, प्यासी आँखों से देख रहे हैं जाना
नस-नस झंकृत, रोम-रोम मं छवि का ताना-बाना
धरती पर ऐसी नारी न हुई है और न होगी
नित्य तड़प कर भी प्रसन्न हैं विरही और वियोगी
नगरवधू का नित्य कर्म था गाना, धूम मचाना
नगर वासियों की चर्या थी न्यौछावर होाना
रथ के आगे-पीछे जो लहराता जन-सागर है
लगता है कोई न स्वजन् है और न कोई घर है
लौह-खंड से चुंबक के सँग के खिँचे चले आते हैं
घर की सुधि लेते केवल जब द्वार बन्द पाते हैं
उच्छासो से बाझित, हतप्रभ वायु निढाल बनी है
सुख भविष्य का वर्तमान की पीड़ा बहूत घनी है