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रात-दिन हम से तो है उलझती ग़ज़ल / द्विजेन्द्र 'द्विज'

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रात —दिन हम से तो है उलझती ग़ज़ल

उनकी महफ़िल में होगी चहकती ग़ज़ल


शोख़ियों के नशे में बहकती ग़ज़ल

सिर्फ़ बचकाना है वो मचलती ग़ज़ल


झूमती लड़खड़ाती ग़ज़ल मत कहो

अब कहो ठोकरों से सँभलती ग़ज़ल


ख़ामुशी साज़िशों के शहर की सुनो

फिर कहो साज़िशों को कुचलती ग़ज़ल


अब मुखौटों, नक़ाबों के इस दौर में

जितने चेहरे हैं सबको पलटती ग़ज़ल


देखिए इसमें सागर—सी गहराइयाँ

अब नहीं है नदी—सी उफ़नती ग़ज़ल


गुम बनावट की ख़ुश्बू में होती नहीं

ये पसीने —पसीने महकती ग़ज़ल


फिर युगों के अँधेरे के है रू—ब—रू

इक नई रौशनी—सी उभरती ग़ज़ल


दिन के हर दर्द से, रंज से जूझकर

रात को ‘द्विज’ के घर है ठहरती ग़ज़ल