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रात-रात भर जब आशा / शिशुपाल सिंह 'निर्धन'

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रात-रात भर जब आशा का दीप मचलता है
तम से क्या घबराना सूरज रोज निकलता है

कोई बादल कब तक रवि-रथ को भरमाएगा
ज्योति-कलश तो निश्चित ही आँगन में आएगा
द्वार बंद मत करो भोर रसवंती आयेगी
कभी न सतवंती किरणों का चलन बदलता है
तम से क्या घबराना सूरज रोज निकलता है
रात-रात भर जब आशा...

ठीक नहीं है यहाँ वेदना को देना वाणी
किसी अधर पर नहीं कामना कोई कल्याणी
चढ़ता है पूजा का जल भी ऐसे चरणों पर
जो तुलसी बनके अपने आँगन में पलता है
तम से क्या घबराना सूरज रोज निकलता है
रात-रात भर जब आशा...

भले हमें सम्मानजनक सम्बोधन नहीं मिले
हम हैं ऐसे सुमन कहीं गमलों में नहीं खिले
अपनी वाणी है उद्बोधन गीतों का उद्गम
एक गीत से पीड़ाओं का पर्वत गलता है
तम से क्या घबराना सूरज रोज निकलता है
रात-रात भर जब आशा...

मत दो तुम आवाज़ भीड़ के कान नहीं होते
क्योंकि भीड़ में सबके सब इन्शान नहीं होते
मोती पाने के लालच में नीचे मत उतरो
प्रण-पालक त्रण तूफानों के सर पर चलता है
तम से क्या घबराना सूरज रोज निकलता है
रात-रात भर जब आशा...

रात कटेगी कहो कहानी राजा-रानी की
करो न चिंता जीवन-पथ में गहरे पानी की
हंसकर तपते रहो छावं का अर्थ समझने को
अश्रु बहाने से न कभी पाषाण पिघलता है
तम से क्या घबराना सूरज रोज निकलता है
रात-रात भर जब आशा...