रात अकेली पगली बेसुध / आदर्श सिंह 'निखिल'
रात अकेली पगली बेसुध सिसक सिसक कर रोई ।
उसकी श्यामल काया का उपहास उड़ाते तारे
हा! अभाग लो भोर किये हो निष्ठुर वारे न्यारे
झिलमिल मोती जो वसुधा के आंचल पर कुछ टांकें
शबनम शब नम नयनों से मधु छिड़क छिड़क कर रोई।
थकित निराश मनुजता को भर आलिंगन दुलराया
भर सामर्थ्य निराशा में आशा का मंत्र सिखाया
उस पर ही आक्षेप उसी का चित्रण कलुषित कल्पित
सुनती सहती किन्तु अकिंचन बिखर बिखर कर रोई।
चाँद भला है तारे प्यारे बादल और दिशाएं
सबमें जग ने ढूढ़ निकाली कितनी मधुर कलाएं
कुत्सित मानस की प्रतिबिम्ब बनी पर मौन रही वो
निशा अंधेरी नभ से बेबस उतर उतर कर रोई।
कहते होंगे कहने वाले लेकिन धीरज धारो
ओ नवजीवन की संवाहक जग को पार उतारो
तुम बिन सम्भव नहीं पार हो जीवन की वैतरणी
ये सुन मुझको अंक लगाया वो झर झर कर रोई।