रात और प्रभात / नरेन्द्र शर्मा
अपनी छाया को देख भूँकते कुत्तों के रथ में बैठी
फिरती निशीथिनी ओर-पास,
ज्यों परिक्रमा कर रही लुप्त तम के पुर की!
क्या तिमिर तोम के दुर्ग-व्योम में
घोषित श्वानों का सुर ही?
हैं पीछे लश्कर के श्रृगाल,
सिर उठा, व्योम की ओर देख
जो बजा रहे मुख से तुरही!
नासिका-रंध्र ही देख सकें जिसको,
ऐसा है घूम्र-चीर—
फैला दिगन्त में आर-पार;
सुलगा कर अवा, कदाचित थक कर, सोये बेफ़िक्रे कुम्हार!
हैं दबे पाँव जा रहे चोर,
औ क़स्बे को नीचे दबोच, चढ़ छाती पर
बैठा पहाड़—चोरों का साथी अंधकार!
सब कहीं दीखता अंधकार ही अंधकार—
छुट्टा छूटा भैंसा बिजार!
मैले गूदड़ के टुकड़ों-से
उड़-उड़ घन घिरते व्योम बीच,
बरसे भी शायद नहीं—गगन के गलियारे में हुई कीच!
था आसमान कुछ क्षण पहले
ज्यों उलटी इस्पाती परात,
काली बदली से घिर दिखता,
जैसे परात को भीतर से,
कालिख ले काले जूने से,
मलता कहार का सधा हाथ!
लो पलक झपीं! फिर खुलीं आँख!
पौ फटी, कमल की खुली पाँख!
पारस-पथरी से छुआ—
हुआ सब सोना-सोना आसमान!
बरसे छवि के सब ओर तीर,
घन बने लहरिया कनक चीर,
सूरज की कोर लगी दिखने, हो जैसे सोने की कमान!
कालिख की कोख चीरती-सी
शमशीर—हिलोर नीर की सी
लहराई, ललकी लपक लहक—
कांचन चपला-सी—छोड़ म्यान!
वह रात
और यह है प्रभात!
वह लोहे की परात जैसी,
यह सोने की थाली—प्रभात!