रात का अहसास / मनीष मूंदड़ा
रात भर नरम हवाएँ चलती रही
रात भर तुम्हें मैं इन उड़ते बादलों के बीच ढूँढता रहा
रात भर तुम्हारी परछाईं को उकेरता रहा
अब सुबह हो तो रूह को सुकून आए
रात भर मेरे सीने में तुम्हारी रूह करवटें बदलती रही
और मुझमें समाती रही
जैसे समन्दर में उफनती मचलती हुई लहरें
साहिल से टकराकर
फिर से समंदर में समा जाती हैं
रात भर तुम्हारी ख़ुशबू मेरे जहन में समाती रही
रात भर तुम्हारी मुस्कुराहटें आँखों में उतरती रही
रात भर तुम्हारी इन्हीं यादों का सिलसिला चलता रहा
रात भर ढूँढता रहा
तुम्हारे साथ बितायी वह चंपाई धूप
मैं ग़लत था
मालूम था मुझे
पर तुम्हारी यादों में दिल की उलझनों का मंजर कुछ ऐसा ही हूँ
रात भर बरसता रहा पानी
दर्द भरे घने काले बादलों से
रात भर मन भीगता रहा
मुरझाया-सा उदास
ढूँढता रहा वह तुम्हारे अहसास का चाँद...रात भर
कल रात...