रात का पिछला पहर / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
चर्चा तुम्हारी मैं करता हूँ,
गन्धवान बकुल मंजरियों के गुच्छों पर-
केसर उड़ाने वाली हवा से खींचे जाते
गन्धलोभी भ्रमर समूह को देखकर!
निद्रा से अचेत-सी-
नित्य-नूतन प्रकृति जब हो उठती छन्दमयी,
किंकिणी बजाती है बरसा कर मधुधारा
तोते के रंगवाली लोई टकी साड़ी पहन।
सुनता तुम्हारे ही अन्तर की धड़कन को
बौर लगी घनी अमराइयों में
मदप्रमुदित कोकिल कजनिनाद-
करता प्रवेश जब मन के अन्तरंग में।
स्मरण तुम्हारा मैं कर लेता-
जहाँ तहाँ जाता हुआ, ठहरा हुआ,
भूली-सी दशा में खोया-सा-
विरह में आतुर मन भेजकर तुम्हारे पास!
हुलसाती मन को तुम्हारी याद
उड़-उड़कर हवा के झोंके से खेतों में,
लहराती, बलखाती इधर-उधर-
फागुन में फूलों की चादर जब रक्त में हिलोरें भर
लग जाता सरसों में हल्दी का अंगराग
भरते मधुपान से मत्त भ्रमर भाँवरे,
मटर के हिंडोले में,
सुर भर देती कम्पन तरंग
राग के उमड़े हुए सागर में।
बाहर से, भीतर से घेरकर
करता तुम्हारा आलिंगन मन।
जौ, गेहूँ, चना के हरे-भरे खेतों में-
चुम्बन जब रख देता भँवर सौन्दर्य का।
पहने लेती टटके खिले फूलों के कर्णपूर,
रंग में बोरे हुए अरहर के शेखर वसुन्धरा।
करता तुम्हारा ही चिन्तन मन,
कल्पना में चित्रित कर।
लगती है चोट जब फूलों को हवा के झकोरे से,
गान में बजता नील गगन पटल!
लेती अँगड़ाई-सी अम्बर की नीलिमा-
तीसी के नीलवर्ण कुसुम दुकूल पर।
ढालता जब हिम-शीतल मन्द पवन चौंरियाँ-
निम्ब, खैर, शमी के पत्तों पर उड़ाने भर।
कौन खींच लेता मन अपने में कीलकर?
उद्वेग-लहरें भर!
सोने का लेख लिख सावन में कड़कनाद करते जब
उद्घोषित अग्निमन्त्र,
जागरण आत्मा का, ‘मा भै;’ का महामन्त्र,
हृदय के द्वार को दीर्ण कर बार-बार
गगन के कण्ठ में रेखा-सी खींचकर,
रक्तवर्ण धूमरहित अग्निशिखा के समान
तूफानी आँधियों के साथ उठ-
तड़ित की प्रत्यंचा पर कजरारे नील घन!
पीड़ित वियोग के शोक से-
शून्य सिहर उठता जब,
जग उठती सोई आग मन में।
निशा का प्रथम पहर झिल्ली के नूपुर बजाता जब
चारों ओर अन्धकार भर कर दिशाओं में,
अग्रगन्धा पृथिवी की वाणी का मौन कक्ष,
खुल जाता मन्द्र झंकार मुखर छन्दों में।