रात का संवाद / शुभा
असुरक्षित लोग ही घरों के बाहर डेरा डालते हैं
बाढ़ तूफ़ान भूचाल जैसी
मुसीबत मे लोग घरों से निकल पड़ते हैं
युद्ध के समय बड़ी-बड़ी आबादियाँ
निकल पड़ती हैं
अब तो अपना ही निज़ाम युद्ध छेड़ रहा है आवाम के ख़िलाफ़
पिछली सर्दियों मे लोग शाहीन बाग मे बैठे थे कितने ही शहरों मे
उससे पिछले सालों मे पढ़ने वाले लड़के-लड़कियाँ सर्दियों मे रातो को सड़कों पर थे
और पानी की तोपें थीं
बनारस दिल्ली हैदराबाद लख़नऊ......
सच कहें पिछले कितने सालों से लोग बार-बार सुरक्षित कोने छोड़ रहे हैं
वहाँ एक मुसीबत है
वो कौन सा साल था जब मुजफ़्फ़रनगर के बच्चे राहत शिविर मे ठण्ड से मर रहे थे
और गुजरात मे .....नरौदा पाटिया और कहाँ-कहाँ
कितने बरस हुए हिन्दुस्तान को उजड़े
लोग कब से नहीं सोए
घर छोड़ कहाँ-कहाँ
प्लास्टिक की शीट के नीचे सिमट रहे हैं
कितने साल हुए किसका हाल पूछते हो इस बेहाली मे
एक वो भी साल था
सर्दी की रात में दिल्ली मे झुग्गियाँ रौंदी गईं
छह महीने की बच्ची वहीं पूरी हो गई थी
ज़रूरी है रात को उन सबको याद किया जाए जो उजड़े हैं
जो मारे गए
जो जेल मे हैं
जो गुम कर दिए गए
जिन्हें कहीं भी अचानक गोली मार दी गई
इसी साल वसन्त बीतते -बीतते मज़दूर सड़क पर थे
उनसे प्लास्टिक की छाया भी छिन गई थी
रेलवे ट्रैक पर रोटियाँ बिखरी थीं उन्हे खाने वाले चले गए
हम कब से युद्ध के बीच हैं
निज़ाम ही आवाम को घेर कर निशाने पर ले रहा है
नेशनल हाई वे पर कल मज़दूर थे
आज किसान हैं
मैं देख रही हूं कैसी सादगी है लोगों मे और कैसा स्वाभिमान
कैसे वे जीवन को बचाते हैं
हिंसा और नफ़रत के बीच
प्यार की मिसाल कायम करते हैं
अपने एकान्त मे आवाम को
निहारना ज़रूर एक अच्छा काम है