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रात की बात / विमल राजस्थानी

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नीले नभ में यह चंद्र आज
मुस्कुरा रहा जो मंद-मंद
यह तो उस प्रभु का रूप एक-
जो विचर रहा होकर स्वछंद
ये तारे हैं न, खुलीं ये तो-
उसकी कुछ अपनी आँखें हैं
जो गुपचुप जग की प्रगति निरख-
हो जाती अपने आप बन्द
जुगनू ये जुग-जुग कर न व्यर्थ-
यों ही तरू से करते विनोद
ये पूछ रहे हलचल जग की-
कह गया जिसे मारूत अमंद
ये पत्ते अचरज करते हम-
दुनिया वालों की मति-गति पर
‘यों ही हिल-हिल, डूल-डूल, रह-रह
आपस में करते महाद्वंद’
प्रेयसी उषा से कहकर यह-
है विदा ले रहा उधर चंद्र
‘तुम देहली पर ही रहीं इधर-
हो गये हृदय के द्वार बंद
वंदिनी तभी बन सकती हो-
मेरे मन-मंदिर की यदि तुम
अब से न करो मेरे इन कपटी-
बंदी अलियों को स्वच्छंद