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रात की हमद / जावेद अनवर

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दिन में दीवारें हज़ार
दिन में रख़्ने बेशुमार
रात बे दीवार-ओ-दर
रात के लश्कर को कोई रोकने वाला नहीं
रात के रस्ते में घर, कूचे, नगर
कोह-ओ-दमन
दश्त-ओ-चमन
बहरो बर
ख़ैर-ओ-शर
रात अन्धेरे का भँवर
रात ख़ामोशी का बन
रात ख़ाबीदा ख़ुदाओं का कलाम
रात ना-पैदा-ओ-पैदा काएनातों से क़दीम
रात के हाथों में है वहशी ज़मानों की ज़माम
दिन बहुत अच्छा है लेकिन इस के आने की ज़मानत
सूरजों के हाथ में है
बादलों के हाथ में है
रात आएगी ज़रूर !

रात इक परवरदिगार-ए-पुरग़रूर
रात की मुट्ठी में वो मँज़र है जिसकी इक झलक
कोहसारों में दराड़ें डाल दे
कोहसारों से परे
भुरभुरी मिट्टी है इस के रोग हैं
हिनहिनाती घोड़ियों के सोग हैं
आसमाँ की राख है चिंगारियों का खेल है !
नींद में डूबी हुई बस्ती, हलाकू ख़ान की फ़ौजें, अन्धेरा, आग,
कटते नर्ख़रे, जलते हुए बच्चों की चीख़ें, रक़्स करती
दासियाँ, बदमस्तियाँ, मटके शराबों के, सलाख़ों पर टँगे
बकरे, हलाकू ख़ाँ का जश्न !
रात की वहशत हलाकू ख़ाँ का ख़्वाब
शेर ख़ाँ की कायनात

रात
गीदड़ का जहाँ
रात अय्यारी का दिन
रात अमरीका की बमबारी का दिन !
रात के साहिल पे महफ़िल दोस्तों की, दुश्मनों की, साज़िशी
टोले, बग़ावत, पोस्टर, सूरों की बैठक पर निहत्थी
मुर्ग़ीयों, घोड़ों, गधों, कुत्तों का हमला.......
...............कुछ इलाक़ों,
कुछ ज़मानों का अन्धेरा ख़ून से धुलता है, बस्ती बस्तियाँ
बुलडोज़रों की ज़द पे आती हैं, लहू बारूद बनता है, बदन की
फुलझड़ी का फूल खिलता है !

रात इक परवरदिगार-ए-पुरग़ुरूर-ओ-मेहरबाँ !
एक बहर-ए-बेकराँ जिसमें हज़ारों साल के बिछड़े हुए
धारे गले मिलते हैं, रूहों के बदन की मेल, तन में
कुलबुलाती रूह की आलाईशें और वस्ल का पानी.......... दुआ
की निगहबानी में तहारत का अमल !
रात की आग़ोश में सब मसलों का हल, सवालों के ज्वाब
रात के मलबे में ख़ाब !
रात बिस्तर की तलब
आपसे, दुनिया से, अपने आपसे, सबसे पनाह
रात को रोना स्वाब
रात को सोना गुनाह
करवटें ही करवटें है, सिलवटें ही सिलवटें हैं

सुब्हदम जिस्मों
पे भी, रूहों पे भी
भूत हैं अपने सवाल
भूत हैं अपने जवाब
हाड़ के दिन, आम का साया, नदी, कोयल, किसी के हुस्न की
झिलमिल.......... फ़क़त इक पल है जो क़िबले बदल देता है, सज़दों की
जगह पेशानियों में आग भर जाती है, रस्ते वो नहीं रहते,
नज़र पगडण्डियों की खोज में रहती है, दिल जँगल में लगता
है.......... कहीं अन्दर
छुपा इक भेड़िया है, जाग उठता है
अन्धेरे सूँघ कर !

रात की मुट्ठी में ख़ौफ़
रात के मलबे में ख़्वाब
रात अज़लों का जहाँ है और जहानों का अबद
बेहद है रात !
रात की हद पर जो दिन है रात की हद पर नहीं है रात की आग़ोश में है
रात रब-ए-बेनिहायत का पयाम
रात के हाथों में है वहशी ज़मानों की ज़माम
रात का सँग-ए-सियाह
तेरी पनाह
मेरी पनाह
दिल पे धब्बे बेशुमार

दिन हुआ तो दाग़ सारे सारी दुनिया के लिए
दिन के दरिया में कसाफ़त शहर भर की
दिन में दीवारें हज़ार
दिन की दीवारों में रख़्ने बेशुमार

रात बे दीवारो दर
रात बे दीवारो दर है और पर्दा-दार भी
रात का पानी बड़ा शफाफ़ है,
फ़य्याज़ है !

तू भी अपने दाग़ धो,
रो,
तख़लिया है रात में
तू है या तेरा ख़ुदा है रात में !