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रात के तट पर / गुल मकई / हेमन्त देवलेकर

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हम रात के तट पर बैठे हैं
तारों के बीच के अंधकार पर
पैर रखते हुए
अन्तरिक्ष में गुम हो जाने की
कल्पना में
रात दरअसल रति ही है
‘इ’ की मात्रा उड़कर
चाँद बन गई
हमारी जुड़ी हथेलियाँ
फड़फड़ाते समय पर
वज़न की तरह धरी हैं
इसके पहले कि हम खो जाएँ
इस अंधेरे में
लज्जा का आख़री आवरण जो बचा है
उतार दें उसे
पूरी गरिमा के साथ देखें
एक दूसरे की नग्नता
और रोशनी हो जाएँ