भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रात के मन्सूबों को पहचानता हूँ मैं / नीना कुमार
Kavita Kosh से
रात के मन्सूबों को पहचानता हूँ मैं
चराग़ों की तरह जलना जानता हूँ मैं
ख़ाकनशीं है ये दुनिया गुबार के ढेर पर
खुद को भी राख-ए-फ़र्दा मानता हूँ मैं