भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रात गुजर गई / वर्षा गोरछिया 'सत्या'
Kavita Kosh से
रात गुजर रही है
कमरे की बिखरी चीज़ें उठाते हुए
सब कुछ बिखरा है
तुम्हारे जाने के बाद
तुम्हारी चहलकदमियां
घूमती रहती है आँगन में
सांसे कुछ फुसफुसा जाती है
कानो में मेरे
बिस्तर की सलवटें अकेली हैं
नाराज है तुमसे
बातों के ढेर लगे है
एक एक को लपेटती हूँ
और रखती जाती हूँ अलमारी में
गठरियाँ हैं कुछ
मुस्कुराहटो की
अलमारी के ऊपर रख दी है
कमरे का फर्स ठंठा है
गीला है मेरे आंशुओ से
उफ़ ! बालकनी में चाँद भी तो है
कितना कुछ बिखरा है
थककर चूर हूँ
कितनी यादें बगल में लेटी हैं
नींदे माथे को चूम रही है
रात गुजर गई
कमरे की बिखरी चीज़ें उठाते हुए