रात थी / सुरेश सेन निशांत
एक
रात थी
घनघोर तम से भरी
रात थी
दुख था
अन्धेरे की चादर ओढ़े ।
एक काँटा था अकेलेपन का
चुभता था बहुत गहरे तक ।
दर्द से भरी
नींद से कोसों दूर
रात थी ।
दो
अन्धेरी सीढ़ियों पर
गमुसुम रोता था कोई ।
ईश्वर नहीं सुन पाता था
उसका रोना
घनी अन्धेरी रात थी ।
हत्यारों की मुट्ठी में
क़ैद था समय
उनकी बन आई थी ।
दिन में भी अन्धेरे का
आभास देती हुई
रात थी ।
तीन
रात थी उनकी
इतने कौशलों से भरी हुई
कि दिन हमारा बुद्धू दिखता था ।
रात थी उनकी
इतनी रौनकों से भरी
कि दिन हमारा बदरंग दिखता था ।
रात थी उनकी
इतनी चालाकियों से भरी
कि दिन हमारा भौच्चक बुद्धुओं-सा
घूमता था ।
रात थी उनकी
अपनी ताक़त के नशे में
चूर ।
पर हमारे दिन की थकान में ही
उगती थी वनस्पतियाँ
चहकते थे परिन्दे
जीवन सीखता था
ढंग से चलना ।
चार
रात थी
पहाड़ के इस छोर से
उस छोर तक रात थी
सन्नाटा था
सन्नाटे में सुनाई देती थी
किसी चीज़ के टूटने की आवाज़ ।
जो टूटती थी
वह नींद थी
या पहाड़ की देह थी
या हमारी ही कोई उम्मीद
टूटती थी
टूटती थी
उसके टूटने की
सुनाई देती थी आवाज़ ।
पाँच
रात थी
पेड़ चुप थे
लगता था जैसे
भय से भरे हुए हों वे
चुप थे विशालकाय पत्थर
लगता था जैसे
हलक में अटकी हुई हो
उनकी भी साँस ।
रात थी
नदी रोती थी ।
उसकी गोद में बैठी
रोती थी जैसे कोई औरत भी
ऊँची आवाज़ में ।
इतना ऊँचा क्यों था
उस औरत का विलाप
जिसे हम सुनते थे
और पेड़ और पत्थरों की तरह
भय से भरे चुप रहते थे
रात थी ।
छह
रात थी
जब राख हो गए थे
हमारे सभी पेड़ ।
कुछ लोगों ने कहा
वह आग नहीं
ईश्वर की कृपा है
जो रात भर आसमान से
झरती रही ।
शायद रात के रंग जैसा ही है
उनके ईश्वर का रंग
शायद राख के रंग जैसी ही है
उनके ईश्वर की भी कृपा ।
कुछ लोग थे जो राख नहीं
ईश्वर की कृपा का
कर रहे थे अपने जिस्मों पर लेप ।
रात थी
घने काले रंगों से भरी
रात थी ।
सात
रात थी
तो रात की ही बात थी
पत्तों के हिलने
पानी के टपकते तक में ।
कोई नहीं करता था
दिन की बात ।
दिन में भी
रात ही की बात थी
ऐसी लम्बी रात थी ।
कोई पूछता था
रहबर का पता
जिधर इशारा करते
उधर अन्धेरे की गोद में बैठी
रात थी ।
आठ
रात थी
कोई रोता था
लोग कहते यह
भारल के रोने की आवाज़ है ।
कोई रोता था
लोग कहते यह
किसी प्यासी टिटहरी के
सिसकने की आवाज़ है ।
कोई रोता था
लोग कहते यह
ग्लेशियरों के सिकुड़ने की
आवाज़ है ।
कोई रोता था
लोग कहते यह
यह खेतों से नमी
उड़ने की आवाज़ है ।
रात थी
कोई था जो रोता था
लगातार
उसे चुप कराने वाली
उँगलियों में लग गया था
निस ।
नौ
दिन उगने के बाद भी
उसके पाँव की छाप थी
ऐसी मनहूस रात थी ।