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रात ना-दीदा बलाओं के असर में हम थे / 'साक़ी' फ़ारुक़ी

रात ना-दीदा बलाओं के असर में हम थे
ख़ौफ़ से सहमे हुए सोग-नगर में हम थे

पाँव से लिपटी हुई चीज़ों की ज़ंजीरें थीं
और मुजरिम की तरह अपने ही घर में हम थे

वो किसी रात इधर से भी गुज़र जाएगा
ख़्वाब में राह-गुज़र राह-गुज़र में हम थे

एक लम्हे के जज़ीरे में क़याम ऐसा था
जैसे अन-जाने ज़मानों के सफ़र में हम थे

डूब जाने का सलीक़ा नहीं आया वर्ना
दिल में गिर्दाब थे लहरों की नज़र में हम थे