रात ने जो बाँसुरी छेड़ी / राकेश खंडेलवाल
रागिनी उल्लास के रह रह सुमन चुनने लगी है
रात ने जो बाँसुरी छेड़ी सुबह सुनने लगी है
प्रीत होकर मलयजी अब स्वप्न करती है सुनहरे
यामिनी-गंधा कली देती निरंतर द्वार फेरे
हर दिशा उमगी हुई है आस के अंकुर उपजते
और अंकित कर बहारों को हवा के साथ चलते
फिर बनी तारा चकोरी चाँद का दर्पण उठा कर
नयन में अपने रुपहरी स्वप्न फिर बुनने लगी है
पाटलों पर ले रही अँगड़ाइयाँ अब ओस आकर
रश्मियों को चूमती है स्वर्ण निर्झर में नहा कर
पाखियों के पंख से उड़ते हुए झोंके हवा के
झर रहे हैं पेड़ की शाखाओं से वे गुनगुनाते
आरती में गूँजती सारंगियों की तान लेकर
मुस्कुराहट की गली से धुन नई उठने लगी है
बिछ रही हैं पंथ में दरियां नये आमंत्रणों की
वाटिकाओं ने मधुप के साथ जो भेजे कणों की
टेरती है गुनगुनी सी धूप बासंती बहारें
झील को दर्पण बना कर रूप को अपने निहारें
उंगलियाँ थामे किसी ॠतुगंध वाली भूमिका की
यह शिशिर की पालकी अब द्वार से उठने लगी है.