भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

रात भर छाई रही हैं बदलियाँ / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

रात भर छाई रही हैं बदलियाँ।
ले रही बरसात है अंगड़ाइयाँ॥

खेत सूखे जिन किसानों के पड़े
कान उनके बज रहीं शहनाइयाँ॥

उड़ न जायें घन हवा का साथ पा
अब सुहायेंगी न ये गुस्ताखियाँ॥

रात गहराने लगी है देख लो
हैं नज़र आतीं न अब परछाइयाँ॥

अब उमंगें आँख में हैं बोलतीं
कितनी तन्हा हो गईं तनहाइयाँ॥

कर दया कि दृष्टि अब इस ओर भी
हैं सही जातीं न ये रुसवाईयाँ॥

दोष कुछ उन का नहीं है साथियों
हाथ में जिन के थमीं बैसाखियाँ॥