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रात भर जागी सुबह को नींद-सी आने लगी / रामस्वरूप 'सिन्दूर'
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रात भर जागी सुबह को नींद-सी आने लगी!
डबडबाई आँख मोतीझील लहराने लगी!
चाँदनी का पैराहन पहने सहर की रौशनी,
नींद में चलती हुई मेरी ग़ज़ल गाने लगी!
रातरानी की महक कोई उड़ाकर ले गया,
ओस की हर बूँद सहमी, और थर्राने लगी!
बादलों से आफ़ताबी रंग की बारिश हुई,
बन्द रौशनदान से बौछार टकराने लगी!
एक नन्हीं याद शबनम से उलझकर रह गई,
काँच की गुड़ियों से दिल का दर्द बहलाने लगी!
कब चला था, कब रुकेगा खुशबुओं का काफ़िला,
इन ख़यालों से कली की जान घबराने लगी!
हरसिंगारों पर पड़ी ‘सिन्दूर’ की परछाईयाँ,
हर कली, हर फूल पर लाली नज़र आने लगी!