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रात भर वादा कोई छलता रहा / सूरज राय 'सूरज'

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रात भर वादा कोई छलता रहा।
इक दिया दहलीज़ पर जलता रहा॥

उम्र भर मज़दूर सुख की पूरियां
आँसुओं के तेल में तलता रहा॥

वक़्त से मैंने निभाया टूटकर
मैं उसे बेइंतहा खलता रहा॥

नफ़रतों के पण्डितों की चाल से
हर महूरत प्यार का टलता रहा॥

तोतले बोलों से माँ के गाल में
एक बच्चा रोशनी मलता रहा॥

दुश्मनी तो आग की धागे से थी
मोम बेचारा यूँ ही गलता रहा॥

रोटियों की उस भिखारन को सज़ा
इक भिखारी कोख़ में पलता रहा॥

चाँद, "सूरज" ओ दिये थकते गए
और अँधेरा फूलता-फलता रहा॥