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रात भर सोना नहीं, याद में खोना नहीं / कमलकांत सक्सेना

रात भर सोना नहीं, याद में खोना नहीं।
देखकर ही तृप्त हो, रूप को छूना नहीं।

खिल नहीं पाती उषा, दिख नहीं पाती प्रभा
प्रात से ही तृप्त हो, ओस को छूना नहीं।

गीत गायेगी हवा, चहचहायेगी सदा
ध्यान में ही तृप्त हो, शब्द को छूना नहीं।

प्यार संज्ञा ढूँढ़ता, मन विशेषण खोजता
तीर पर ही तृप्त हो, धार को छूना नहीं।

आपकी गूंगी कला, बन गई प्यासी कथा
दृश्य भर ही तृप्त हो, ओंठ को छूना नहीं।