रात भर स्नेह का दीप जलता रहा / जितेन्द्रकुमार सिंह ‘संजय’
रात भर स्नेह का दीप जलता रहा
प्रीति का गीत लिखता रहा रात भर।
एक अव्यक्त-सी गन्ध आवर्त में
सीप में ज्यों पड़ी बूँद स्वाती सखी!
देह में प्राण के सत्य संचार-सी
राधिका की लिखी प्रीति-पाती सखी!
बाँच कर मन मगन नेह ढलता रहा
रीति का गीत लिखता रहा रात भर।
रात भर स्नेह का दीप जलता रहा
प्रीति का गीत लिखता रहा रात भर॥
छन्द हर क्षण बदलते सहज रूप में
भाव-मोती पिरोकर सु-माला बनी
जौहरी को परख थी न जिस रत्न की
ज्योति उसकी नवोढ़ा दुशाला बनी
मन्द मुसकान प्रतिकार छलता रहा
नीति का गीत लिखता रहा रात भर।
रात भर स्नेह का दीप जलता रहा
प्रीति का गीत लिखता रहा रात भर॥
रूप के दर्प की क्या कहानी कहूँ
पुष्प-सौरभ में ज्यों दृष्टि उनकी फँसी
शोण के बाहु उपकूल में ज्यों चली
धार देवापगा हो अचानक धँसी
नींव की ईंट-सा अंक पलता रहा
भीति का गीत लिखता रहा रात भर।
रात भर स्नेह का दीप जलता रहा
प्रीति का गीत लिखता रहा रात भर॥
होश में चित्त था देह बेहोश थी
चेतना फिर भी जागृत हमेशा रही
संस्मरण है यही गत दिवस का सखी!
फूल-सी प्रियतमा रति-नयन से दही
काम-शर-ग्रस्त मन मोक्ष फलता रहा
जीति का गीत लिखता रहा रात भर।
रात भर स्नेह का दीप जलता रहा
प्रीति का गीत लिखता रहा रात भर॥