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रात महुए-सी / नईम
Kavita Kosh से
रात-महुए से टपकती रह गई।
बस ज़रा-सा फूलते ही
पोंहचियाँ सूनी हुईं,
पहरुए जागा किए, पर
चोरियाँ दूनी हुईं
तूल देकर/गंध जाने
किस तरफ को बह गई।
अपशकुन झरते रहे
फूले हुए आकाश से,
दूर सन्नाटे हुआए
यूँ कि बिल्कुल पास से,
निपट निष्ठुर/सारिका
अंतिम कहानी कह गई।
झुटपुटे में अक्स खोए-
आइना बनता नहीं,
दिन-चंदोबा अकेले से
तानते तनता नहीं।
थकी-माँदी सुबह मेरे
द्वार आकर डह गई।