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रात लम्बी है, सबेरा दूर है / ब्रह्मजीत गौतम

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रात लम्बी है, सबेरा दूर है
 सूर्य तम के सामने मजबूर है


दीप यह लड़ता रहेगा रात-भर
स्नेह जो इसको मिला भरपूर है


अब कहाँ इंसानियत उसमें बची
वह सियासत के नशे में चूर है


कल का पत्थर आज मंदिर में पहुँच
पा रहा चन्दन, अगर, कर्पूर है


सूर्य! ढलना ही है आख़िर में तुझे
सुब्¬ह से फिर किसलिए मग़रूर है


वार छिपकर ही किये तूने सदा
मौत ! तू कायर, कहाँ की शूर है


तुम गये जो ज़िन्दगी से, यों लगा
 ज़िन्दगी यह हो गयी बेनूर है


आपने हमको दिया था ज़ख़्म जो
शुक्रिया, वह हो गया नासूर है


एक दिन तो धूप निकलेगी ज़रूर
क्या हुआ गर आज कुहरा क्रूर है