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रात लिखती है नज़्म / हरकीरत हीर
Kavita Kosh से
कोई सन्नाटा नहीं पूछता
जली लकीरों से कहानी
रह रहकर उठती टीस
रात की छाती पर लिखती है नज़्म
खामोश नज़रें टकरा कर लौट आती हैं
मुहब्बत की दीवारें से
दर्द हौले हौले सिसकता है
रात लिखती है नज़्म
सहसा देह से
इक फफोला फूटता है
कंपकँपता है जिस्म
कोरों पर कसमसाती हैं बूंदें
अँधेरा डराने लगता है
दर्द हौले हौले उतारता है लिबास
रात लिखती है नज़्म
धीरे धीरे ज़ख़्म
उतार देते हैं हाथों से पट्टियां
झुलसी लकीरों से ख़ामोशी करती है सवाल
दर्द अपनी करवट क्यों नहीं बदलता
लकीरें खामोश हैं
वक़्त ठठाकर हँसता है
रात लिखती है नज़्म