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रात लेके निकला / सूरज राय
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जितनी थी मुझ ग़रीब की औकात लेके निकला
रिश्तों को मैं ख़रीदने जज़्बात लेके निकला
ख़ामोश हैं ज़ुबानें, इंसाँ, अजल, ख़ुदा
ये कौन ज़िंदगी के सवालात लेके निकला
कहते हैं ख़ुदा जिसको, सब ख़त्म है जहाँ पर
उस छोर से वो अपनी शुरुआत लेके निकला
सहरा से अधिक वीराँ दिल मेरा सही, लेकिन
इस दिल में जो भी आया बरसात लेके निकला
ये किसके ख़यालों से जुंबिश हुई है दिल में
है कौन है जो शमशान से हयात लेके निकला
‘सूरज’-ओ-चाँद जिसके फ़ानूस के थे क़ैदी
वो भी जहाँ से निकला तो रात लेके निकला