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रात ही क्या, दिन उपासी / अमरेन्द्र

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रात ही क्या, दिन उपासी,
आज पुर में मन प्रवासी ।

एक ही रस-भाव में यह
कट रहा जीवन अकेला,
खेल सारे देखता हूँ
जेब में ले कर अधेला;
लोग खुश हैं गीत गाते
सप्त सुर में तान ले कर,
मग्न सब ही हैं मताए
रूप-रस का ध्यान ले कर।
मैं कभी जो तान खींचूं,
जा निकलती है उदासी ।

रास है, रस-रंग सज्जित
सुर सजे हैं, दिष्ट चंचल,
है छिड़ा मधुगंध-दंगल
लोक तो क्या, शिष्ट चंचल;
बिछ गई मधुमास की है
स्वर्ण आभा की परत ही,
कान में कुछ कह गई थी
जाने से पहले शरत ही।
मैं विरागी-सा दिखूँ, पर
हो रहा है जग विलासी ।