भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
रात / दोपदी सिंघार / अम्बर रंजना पाण्डेय
Kavita Kosh से
महुए सी गिरती है रात
चाँद इतना बड़ा जितनी हँसिया थी मेरे रसिया की
फिर रात जोर-जबर की
हँसिया उठाया और काट दी पंसली
दिन उगा
खून में
उसने कहा मासिक धर्म का खून है
खून मेरी पंसलियों से मेरे ह्रदय से गिर रहा था
टप टप
चाँद डूब गया था
हंसिया उठाके रसिया गया खेत
मैं गई रसोई में ।