रात / विश्वनाथप्रसाद तिवारी
और रात जब ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों को घेरने लगती है
तो आकाश में फड़फड़ाते पक्षी
दूर-दूर जंगलों में गुम होने लगते हैं
स्याह हो जाते हैं ऊँचाइयों के देवदारु
तराई के गाँव नींद मे बड़बड़ाते हैं
चट्टानें ढलानों से लुढ़कती हैं
एक आहत, रौंदी हुई, बेजान शताब्दी की तरह
घाटी का जंगल चीख़ता है
जैसे यूरोप चीख़ता हो हिटलर के यातना शिविरों में ।
मेरे सहयात्री, क्या तुम बता सकते हो
क्यों छेदते हैं वे ठंड में सिकुड़े हुए लोगों को ?
कब तक उनके रहम की प्रतीक्षा करते रहेंगे
ये सहमे हुए पहाड़
ये डरी हुई नदियाँ
ये काँपती वनस्पतियाँ ?
क्या बता सकते हो
यह अन्धकार में लड़खड़ाती छाया किसकी है?
कौन है यह रक्त से लथपथ
थका-माँदा, दिशाहारा ?
क्या बता सकते हो
ये हाँफते हुए लोग कहाँ भागे जा रहे हैं ?
वह नीली आँखों वाली सफ़ेद लड़की
उस काले युवक पर क्यों थूकती है ?
मेरे इतिहास के साथी, शायद तुम नहीं बता सकते
जंगल से आने वाली इन मिली-जुली आवाज़ों के अर्थ
गो तुम जानते हो
आजकल रातें कितनी ठण्डी होती हैं
ठण्डी और ख़ौफ़नाक—
जब मरी हुई इच्छाएँ साँप की तरह निकलती हैं
और चन्दन की सुकुमार टहनियों को कसकर लपेट लेती हैं
अपनी लपलपाती ज़हरीली जिह्वा से
एक नंगी त्वचा को छीलने लगती हैं।
जब नदी, पहाड़, जंगल, घाटी, मैदान
शहर, क़स्बा, गाँव, रेगिस्तान
सब गुम हो जाते हैं
केवल एक बदनसीब चेहरा
मोड़ पर कभी हँसता है, कभी रोता है ।
जब लोग अपने-अपने दरवाज़े-खिड़कियाँ बन्द कर लेते हैं
अपनी-अपनी मोमबत्तियाँ बुझा लेते हैं
अपने अपने अँधेरे-बन्द कमरों में
दुबककर ख़ामोश हो जाते हैं
और ज़िन्दगी-भर के आदर्शों—ज़िम्मेदारियों से दबे
पेट के बल खाँसने लगते हैं।
और वे भयानक काली रातें
अश्वमेध के घोड़ों की तरह बढ़ती जाती हैं
एक शहर से दूसरे शहर को
आक्रान्त करती बस्तियों को
जिनकी मुलायम त्वचा
वल्गाहीन घोड़ों की नुकीली टापों से छिलती जा रही हैं ।