रात / शिवनारायण जौहरी 'विमल'
रात उस समय भी होती है
जब मन में अँधेरा हो
दरवाजे खिड़कियाँ बंद हो जाएँ
हाथ को हाथ ढूँढता रह जाय।
रात ही कहलायगा वह दिन
जब मैं अकेला
अपने आपको ढूँढू और
एक खालीपन के अलावा
हाथ कुछ आए नहीं।
जब गहराई तक डूबने पर भी
विचार शून्यता घेरे रहे।
रास्ता भूल जाए घने जंगल में
वह भी रात होती है
जब दिन के उजाले में
आँख की और ध्यान की
दिशाएँ भिन्न हो जाएँ
आँख को सामने का
द्रश्य भी दिखता न हो
जब पेट की आग
आँखों में उतर आये
दिशाएँ जल उठें चारों
तब रात आती है
नई सुबह को गोद में लेकर।
रात है उम्मीद
गुलाबी उषा से मुलाक़ात की
उजली ज़िन्द्गी की
रंगीन लम्हों की।
हर ज़िन्दगी में एक बार
पूर्वाभास दिए बगैर
आती है ऐसी रात
जिसका सबेरा होता नहीं।
मेरी रात रानी आगई तुम
नर्मदा से निकल कर
पहचानी हुई खुशबू में
लपेटे हुए अपना बदन
प्यार ने पंख फिर फैला दिए
चलो थोड़ी दूर तक घूम आएँ
बैठ कर इन पर।
(2)
रात की सूरज से
अनबन है शुरू से
एक दूजे का चहरा
देखना भाता नहीं हैं।
दोनों ने अपने खिलोने तक
अलग कर लिए हैं।
दिन का खिलौना
हंसती खेलती मृगया।
रात के खिलोने स्वप्न में
चलते फिरते बोलते
बात करते खिलोने
जिनका वीडियो
चला करता है सारी रात।
निराशा, दुःख, पीडा, गरीबी
रात के मेंग्नीफाइंग ग्लास में
भयानक दिखाई देते हैं।
दिन की भगा दौड़ी
से थक कर निढाल हुए
आदमी को सहारा देती है
रात मीठी नींद में
थपकियाँ देकर।
तैयार करती है
कल की मेंराथोंन में
भाग लेने के लिए।